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संधि ४७
सुविहिं सुविहिपंथासणं सयमहर्षदियसासणं ।। भुवणणलिणवणविणयरं वने णवमं जिणवर ॥ध्रुवक।
णहास्नित्ततारं सुहामोयसास पदिहं दिसासु परीणं अगम्भ इयं जेण फम्म गयासाविहाणं सुरिंदरिधीरो पयोहीगहीरो दिहीगाइगोषो सकारुण्णभावो कुसिद्धंतषारो ण जो मोहभंतो
सवण्णेण तारं। सया जस्स सासं। रिसिं रविवयासुं। पमोत्तूण गं में। जगे अस्स कम्म। णिहाणं विहाणं। सत्यसाण श्रीदो। असंगहीरो। अमोहो विगोवो। जणुग्घुट्टभावो। सुविसवारो। णजम्मोहवंतो।
संधि ४७ सुविधिका प्रकाशन करनेवाले, इन्द्रके द्वारा जिनका शासन वन्दनीय है ऐसे भुवनस्पी कमलपनके लिए दिवाकर नौवें तीर्थकर सुविधि (पुष्पदन्त) को मैं नमस्कार करता हूँ।
जिन्होंने अपने नखोंसे आकाशके तारोंको तिरस्कृत कर दिया है, जो अपने वर्णसे स्वच्छ हैं, जिमके खास सुख और बामोदमय हैं, जिनका मुख सदेव शोभामय है, जिन्होंने दिशामुखोंको उपविष्ट किया है, जो प्राणियोंके प्राणोंको रक्षा करनेवाले हैं, जिन्होंने शत्रुओंके लिए अगम्य भूमि और लक्ष्मी छोड़कर कोका नाश किया है, विश्व में जिनका काम (नाम) है। जिनका विषान और षर्मोपवेश विधान फल की इच्छासे रहित है। जो सुमेरुपर्वतकी तरह गम्भोर हैं, जो अपने भक्तों के लिए बुधि देते हैं, जो समुदकी तरह गम्भीर हैं, जो शरीरसे स्त्रोका त्याग कर देनेवाले महादेव । जो तिरूपी गायकी रक्षा करनेवाले गोप (विष्णु) हैं। मोह और गर्वसे रहित है; जो कोरुण्य मावसे युक्त हैं, जो लोगोंको पदार्थका स्वरूप बतानेवाले हैं, खोटे सिद्धान्तोंका निवारण करनेवाले और अनन्त स्वरूपोंका अन्त देखनेवाले हैं। जो मोहसे प्रान्त नहीं हैं और न जन्मके
Pgives, at the beginning of this Sandhi, the stanza: बरमकरोक्पार for which
see note on page 45 A and K do not give it, १.१. PT सुविहियसासणे । २. P.वविवि । ३. A पक्खिसदारं । ४. A अगोवो। ५. P सुसिखंतपारो।