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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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जंबूदीवि भरहि विजयाचलु अहिणवचंदणचंपयपरिमलु । जहि सुरणारिहिं गेयपवीणहिं सकै सुम्मद वजंतहि वीणहि । जहिं रिसिबसइ अछिसु अहंस जसु मेहल सेविमान से । जहिं जं भूसिज्जइ सरकंक णिम्मलु तं वण्णिाइ के के। जहि केवलि णिचाणपयं गड जहिं मणियरहि ण विट्ठ पयंगत । फलिहसिलायलि जहिं मार्यहिं मैंई दिजइ जोइयणिययंगहि । दाहिणसे ढिहि तहि रहणेर पुरु णारियणरणियपयणेकरु । सेत्थु जलणजडि णिवसइ खगवा विणेओणयसिरु णारइ खगवाह । णियजसेण कतहु चंदाहहु तिलयणयरणाहहु चंदाहहु । तासु सुहददेवि पियराणी of आसीस पुवपियराणी। घता-ताई बिहि मि सुय हूई णं रहणाहहु दुई।
वाग्वेय सा एयदु दिणी विणयरसेयहु ।।२।।
सिहिजेडिणामह जयसिरिधामहु अक्ककित्ति सुट जायउ केहल अवर वि चंदसरीरइ णं पह
रूउहामहु णिज्जियकामहु। खतधम्मु णरवैसें जेहड। चप्पणी सुय णाम सर्यपह ।।
जम्बूद्वोपके भरतक्षेत्रमें अभिनव चन्दन और चम्पक परिमलसे युक्त विजया नामका पर्वत है जहाँ गीतमें प्रवीण सुरनारियों और बजती हुई वीणाका स्वर सुना जाता है। जहाँ ऋषियोंकी बस्ती है और जो पापांशसे अछूता है, जिसकी मेखला हंसके द्वारा सेवित है। जहाँ जो जल जलघकसे भूषित हैं. निर्मल उस जलका मैं क्या वर्णन करूं? जहां केवलियोंने निर्वाण प्राप्त किया। जहाँ मणिकिरणों के कारण सूर्य दिखाई नहीं देता। जिन्होंने अपने शरीरका प्रतिबिम्ब देखा है,ऐसे हाथो जहाँ स्फटिक शिलाओंपर अपना मुंह देखते हैं। उस पर्वतकी दक्षिण श्रेणोमें रथनूपुर नगर है, जिसमें नारीजनोंके नूपुरोंको रुनझुन सुनाई देती है। उसमें ज्वलनजदी नामका विद्याधर निवास करता था। अपने यशसे कान्त चन्द्र के समान आभावाले तिलकनगरके राजा चन्द्रामको सुभद्रादेवी नामकी प्रिय रानी थी, जो मानो पूर्वजोंका आशीर्वाद थी।
पत्ता-उन दोनों के एक पुत्री हुई जो मानो कामदेवकी दुती थी। वह वायुवेगा (कन्या) दिनकरके समान तेजवाले इसे ( ज्वलनजटो ) को दी गयी ||२||
विजयश्रीके घर कामको जोतनेवाले और रूपमें उत्कट ज्वलनजटीका अर्फकोति नामका ऐसा पुत्र हुआ, जो मनुष्यके रूपमें जैसे छानधर्म हो। और भी उसे चन्द्रमाके शरीरसे प्रभाके
२. १. A सुरु। २. 4 सरु कके। ३. A मणिणियरहि। ४. AP महुँ । ५. A णारीयणं । ६. A
विणउण्णय । २. १. A सिहजर्षि । २. A वोदामह ।