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अर्षचक्रवर्ती बन बैठा । पोदनपुरके राजाको दो रानियां थीं-जपावती और मृगावती । जयावतीने जिस पुत्रको धम्म दिया, उसका नाम विजय पाजो कि पूर्वजन्ममें विशाखभूति था। यह विजय, जैन पुराणविद्याके प्रथम बलदेव थे, उनका रंग गोरा था। मृगावतीने जिस बालकको जन्म दिया, उसका नाम त्रिपृष्ठ था जो कि अपने पूर्वजन्ममें विशाखनन्दी था। यह पहले वासुदेव थे, बौर इनका वर्ण काला था 1 ये दोनों सौतेले भाई एक दूसरेके प्रति प्रगाढ़ प्रेम रखते थे।
LI एक बार रामा प्रजापतिके पास यह समाचार बाया कि एक भयंकर सिंह प्रजामें आतंक मवा रहा है। प्रजाने उससे इस अनर्थको हटाने की प्रार्थना की। तत्पश्चात् राजा स्वयं जाकर सिंहको मारने के लिए तैयार हो गया, जब कि विजयने उससे प्रार्थना की कि उसे इस कार्यके लिए जाने दिया जाये। चिजानेउसे जाने की अनुमति दे दो, उसका छोटा भाई भी उसके पीछे गया। दोनों सिंहकी गुफामें पहुँचे, योद्धाओंके शोरगुल और चिल्लाहटसे भड़ककर सिंह बाहर आया। बह विजयपर झपटनेवाला था कि त्रिपष्टने अपने पोनों वाहुओंमें सिंहके पंजे पकड़ लिये और उसके मुंहपर आचात किया । सिंह मरकर गिर गया ।
एक विन द्वारपाल पहुँश और रामासे निवेदन करने लगा-कि द्वारपर एक विद्यारर है जो आपसे मिलना चाहता है। उसे राधाके सम्मुख उपस्थित किया गया। विद्याधरने राजा प्रजापतिसे कहा कि पसका नाम इन्द्र है और वह राजा ज्वलनजदीका जनकर भागा है। यह सन और विजाइ तथा विपद्धको विद्यापर-क्षेत्रके लिए निमन्त्रित करने आया है ताकि त्रिपृष्ठ पत्थरको शिला उठाये, जिसका नाम कोटिशिला है, तथा अश्वग्रीव को मारे और उसकी कन्या स्वयंप्रभासे शादी करे, बहसीनाखण्ड घरतोका राजा बने और राजा ज्वलनअटीको विजयाई पर्वतकी दोनों श्रेणियोंका राजा बनाये। प्रजापतिने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वह विद्याधर क्षेत्रमें गया। ज्वलनमटीने उनका अच्छी तरह स्वागत किया। उससे अपने पुत्र अर्ककोतिसे परिचय कराया। बात बीतके दौरान यह तय किया गया कि सबसे पहले विपृष्ठ शिला उठाये जिससे सन्हें विश्वास हो सके कि वह अश्वग्रीवको मार सकता है। तत्पश्चात् वे सब उस जंगलमें गये, जहाँ कोटिशिला रखी हुई थी। उन्होंने त्रिपृष्ठ शिला उठाने के लिए कहा। उसने आराानीसे उसे उठा दिया । ज्वलनजटो और दूसरोंने इतनी पाकिके लिए उसकी प्रशंसा की। उसके बाद वे सब पोदनपुर लौट आये और उन्होंने त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रमाके विवाहका उत्सव मनाया 1 विवाहका समाचार अश्वग्रीवके कानों में पड़ा, बह ज्वलनजटीफे कार्यो कुढ़ गया, कि उसने अपनी कन्याका विवाह जातिके बाहर किया-अर्थात उसने एक मनुष्य त्रिपुष्ठको अपनी कन्या विवाह वी, बजाय विद्याधर अश्वग्रीवके। उसने मन्त्रियों की राय विरुष्ट ज्वलनबाटी और प्रजापतिपर चढ़ाई करनेके लिए कम किया ।
LIL-बरोंने राजाको सेना और अश्वग्रोवके पोदनपुरके प्रवेशद्वार तक पहुंचने की सूचना दो। इसपर प्रजापतिने ज्वलमजटीसे परामर्श किया कि उन्हें किस प्रकार स्थितिका सामना करना चाहिए. जबकि विजयने कहा-मुझे विश्वास है कि त्रिपुष्ठ निश्चित रूपसे अपवनीवको मार डालेगा । लाई शुरू होने के पहले अश्वग्रोवने दूत भेजा, त्रिपृष्ठके पास यह जाननेके लिए कि क्या वह अश्वग्रीवके साथ सन्धि करने और स्वयंप्रभा वापस करनेके लिए तैयार है। त्रिपुष्ठने प्रस्ताव ठुकरा दिया । युद्ध शुरू हो गया । देवीन विपृष्ठको सारंग नामको धनुष, पांचजन्य नामका शंख, कौस्तुभ मणि और कुमुदनी गदा और विजयके लिए दल, मुसल और गवा दिया । सेनाएं भिड़ों और उनमें भयंकर युद्ध हुआ । युद्ध के दौरान अश्वग्रीषने अपना चक्र त्रिपृष्ठपर फेंका, पर वह उनको हानि नहीं कर सका, वह उसके हाथ में स्थित हो गया। उसने तब इमो चक्रका उपयोग अश्वग्रीवके विरुद्ध किया जिससे वह मारा गया। उसकी मृत्यु के बाद त्रिपृष्ठ अर्धचक्रवर्ती बन गया। उसके शोघ्र बाब ज्वलनमटी अपनी राजधानी रचनपुर नगर बा गया और लम्बे अरसे तक विजया पर्वतकी दोनों श्रेणियोंके ऊपर प्रभुसत्ताका भोग करता रहा, फिर साधु हो गया। राजा प्रजापतिने भी ऐसा ही किया । अब त्रिपुष्ठ सदैव मानन्दसे अतृप्त रहा । वह मरकर सातवें नरकमें गया । उसकी मृत्यु के