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________________ १८८ [५०.३.१० १. महापुराण पत्ता-णं वणि लिणि दुरेहु अच्छइ णिच्च पइट्टर ।। इय सो तेत्थु रवंतु लक्खणजाएं दिट्ठउ ।।३।। तओ तं णियच्छेवि रापंगएणं वणुस्साहिलासं गहीरं गएणं । घरं गंपि सोगोमिणीमाणणेणं पिऊ पत्थिओ पुषणचंदाणणेणं । सया चायसंतोसियाणेययंदो जहिं कीलए णिचसो विस्मर्णदी। वणं देहि तं मज्झ रायाहिराया महामंतिसेणावईवंदपाया। ण देमि चि मा जंप णिब्भिपकणं अहं देव गच्छामि देसंतमण्णं । णरिदेण उत्तं वैणं देमि णं तुमं जाहि मा पुत्त उम्बिग्गठाणं । दुमते रमंतो मयच्छीण मारो। पुणो तेण कोकाधिओ सो कुमारो। खणेणेय पत्तो समित्तो गवंतो पिउवेण संबोहिमओ णायवंतो। मईमा हालेण दिन तुमं पस्थिवो तुझ रज रवणं । कुलीगा तुमं चेय मण्णंति सामि तुम थाहि सीहासणे मुंज भूमि । अहं जामि परचंतवासाइं घेतं बलुहामथामें रिऊ पुस्त हैं। तओ जंपियं तेण तं मज्झ पुजो तुम देव तायाउ आराइणिजो। थिराणं कराणं पयासेमि सत्ति अहं जामि गेण्हामि कूरारिविसि । घत्ता-मानो वनमें कर्मालनी और भ्रमर नित्य रूपसे प्रवेश करके स्थित हों । इस प्रकार रमण करते हुए उन्हें लक्ष्मणाके पुत्र विशाखनन्दीने देखा ॥३॥ उस समय उस राजपुत्रको देखकर उसके मनमें वनको गम्भीर अभिलाषा उत्पन्न हो गयी। घर जाकर लक्ष्मीके द्वारा मान्य और पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखवाले कुमारने अपने पितासे प्रार्थना की, "जिसने अपने त्यागसे अनेक चारणोंको सन्तुष्ट किया है, ऐसा विश्वनन्दी जहाँ नित्य क्रीड़ा करता है, महामन्त्री और सेनापति के द्वारा वन्दनीय चरण हे राजाधिराज, वह उपवन मुझे दीजिए, 'मैं नहीं देता हूँ', कानोंको भेदन करनेवाला ऐसा मत कहो (नहीं तो) है देव मैं देशान्तर चला जाऊँगा।" राजाने कहा, "मैं निश्चित रूपसे वन दूंगा। हे पुत्र, तुम खेद जनक स्थानको मत जाओ।" फिर उसने, भृगनयनियों के लिए कामदेवके समान, क्रीड़ा करते हुए कुमारको खोटे विचार से बुलाया। एक क्षण में अपने मित्रके साथ उपस्थित प्रणाम करते हुए न्यायवान उस पुत्रसे चाचाने कहा, "भाईके द्वारा स्नेहके कारण दिया गया यह सुन्दर राज्य तुम्हारा है । तुम राजा हो । कुलीन लोग तुम्हींको राजा मानते हैं। तुम सिंहासनपर बैठो और धरतीका भोग करो। मैं सीमान्तके निवासियोंको पकड़ने के लिए और सेनाको उद्दाम शक्तिसे, हे पुत्र, शत्रुका नाश करने के लिए जाता हूं।" तब उस कुमारने उससे कहा, "तुम मेरे पूज्य हो । हे देव, तुम तातके द्वारा आराधनीय थे। मैं अपने स्थिर हायोंकी शक्ति प्रकाशित करूंगा, में जाता हूँ और क्रूर राजाओंकी वृति ग्रहण करता हूँ।" ६. A लिगदुरेहु । ७. णिच्चु । ४. १. A माणिनीमाणणेणं । २, A वणे देहि। ३. A वरं देवि पूर्ण । ४. AP सिंहासणे । ५. A रिवं पुत्त।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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