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________________ १८७ -५०. ३.९] महाकषि पुष्पदन्त विरचित तुहुं करहि रज्जु मई दिण्णु भाय रक्खेजसु णियकुलकित्तिछाय । ता थिउ संताणि विसाहभूइ णिग्गिवि गस काणणु विस्सा । महि विहवसार जरतणु गणेषि जोईसरु सिरिहर गुरु थुणेवि । सहूं भव्वणरिंदई विहिं सएहिं थिर्ड अप्पड महि वि महत्वएहिं । एत्तहि विसाहभई सुराउ . सो विस्सदि जुबराज जाउ ! पत्ता-गंदणवणि कीलंतु हा मुणाले घरिणिउ ॥ पसरियदीहकरग्गु मत्तउण करि करिणित || काहि वि मयर करइ तिल काहि वि वेशीहरि देश णिलउ । कवि सिंचिये जलगडूसएण। कवि जोयइ णवजोवणमएण। काहि वि कामु व कुसुमोबु धिवइ कवि पणय कुविय अणुणंतु गवइ । काहि वि करैलीलाकमलु हर कवि लेवि सरोवरणीरि तरह । छाइयससिसूरमऊहमालि काहि विहिका णीलाइ तमालि । दोसइ का वि कररुह फुरंतु काइ वि करि धरियउ दर हसंतु। पारोहर कवि दोलायमाण अवलोइय वडजविखणिसमाण । कवि बंधिवि मोतियवामएण हय कुवलएण कयकामएण। साहाररसिल्लाउं कणयवसु काहि वि तरुपल्लवु दिण्णु रत्तु । दिया, तुम अपने कुलकी कोसिछाया रखना।" विशाखभूति उसको राज्य परम्परामें बैठ गया। विश्वभूति घरसे निकलकर बनमें चला गया ! धरती और वैभव श्रेष्ठको जोर्ण तणकी तरह समझ कर वह योगीश्वर श्रीधर गुरुको स्तुति कर सैकड़ों भव्य राजाओंके साथ अपनेको महावतोंसे विभूषित कर स्थित हो गया। इधर विशाखभूति सुन्दर राजा हो गया तथा विश्वनन्दो युवराज हो गया।" पत्ता-नन्दनवनमें कोड़ा करते हुए कभी वह पत्नीको मृणालसे मारता है, मानो मदमत्त गज अपनी फैली हुई सूइसे हथिनीको मार रहा हो ॥२॥ कभी मकरन्दसे तिलक करता, कभी लतागृहमें उसे बैठाता, कभी जलके कुल्लेसे उसे सींचता, कभी नवयौवनके मदसे उसे देखता, कभी काम के समान कुसुमके फूलोंको उसपर डालता, कभी प्रणयसे कुपित उसे मनाता हुआ नमस्कार करता। कभी लीला कमलका हरण करता, और कभी उसे लेकर सरोवरके तीरको पार करता। कभी, जिसने सूर्य और चन्द्रमाको किरणोंको आच्छादित कर लिया है ऐसे नीले तमाल वनमें छिप जाता है, कभी उसकी चमकती हुई अंगुलियां दिखाई देती हैं, कभी हाथसे पकड़कर कुछ मुसकराता है, कभी वह वटके प्रारोहों पर झूलती है, और वटवृक्षको यक्षिणीके समान दिखाई देती है. कभी काम कर लेने के बाद, मोतोको मालासे बांधकर कुवलयसे आहत करता है। कभी सहकारके रससे भाई कमलपत्र और कभी लाल वृक्षपत्र देता है। ५. A जिग्गवि । ६. A ठि। ७. A रज्जेहि विसाहभूई सरा; P एतहि बिसाइभू सुराः । ८. P हण्णइ । ९. AP करि णं ।। ३.१. A काहि मि । २. AP सिंचइ। ३.AP जोश्य । ४. A करि लोला । ५. AP लेह ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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