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महापुराण १५ एतं वारपणं वियारिया
वइरिवाण बाणेहिं पारिया। णाई गाय णापहि कयफणा __ लोहबंत पिसुण व णिग्गुणा । घत्ता-पडिकण्हें कण्हहु पट्टविउ अलयहउ उहामउ ।।
अइदीहरु कालड पंचफडु भीयरु मारणकामः ।।१५।।
दुवई-सो गरुडेण हणेवि खणि घेल्लिर पडिबलजलणवारिणा ।।
मायातिमिरपडलु ता पेसिउ तह हुंकरिवि वइरिणा ॥ संक्खिलक्खखयंकाल हरिणा णासि रवियरजालें । इय दिव्वापंतिउ टिपण बहुयन लक्खकोडिसयगपणा । पुणु बहुरूधिणिविजपहावे जुज्झिउ पडिहरि कुडिलसहावे । सा वि पणट्ट जणणपुण्णे सिरिमइतणएं अंजण यणे । लेवि च करि भामिवि वुत्तई देहि हस्थि मा मरहि णिकत्तई । ता पहिलविय उपायापुत कि ससहरु जिप्पा णक्खत्त ।
जहण धरमि रहंगु सई हत्थे तो पइसमि हुयबहु परमत्थें । १० मरु को मरइ संढ तुह घाएं मुकु च तो तारयराएं । तीर छोड़े। आते हुए उन तीरोंको तारकने विदारित कर दिया। शत्रुके बाणोंका उसने बाणोंसे निवारण कर दिया, जैसे नागोंके द्वारा फन उठाये हुए नाग हों। वे तीर लोहवन्त ( लोहेसे बने, लोभयुक्त ) और दुष्टकी तरह, निर्गुण ( डोरो रहित-गुणरहित थे)।
धत्ता–प्रतिकृष्ण तारकने द्विपृष्टके ऊपर उद्दाम अत्यन्त दीर्घ काला पांच फनका भयंकर मारनेकी इच्छावाला जलसर्प फेंका ॥१५||
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उसे द्विपृष्टने शत्रुबलको ज्वालाके लिए जलके समान गरुड़ वाणसे एक क्षणमें नष्ट कर दिया। तब दुश्मनने हुंकार करते हुए उसके ऊपर मायावी ( कृत्रिम ) अन्धकारका पटल फेंका। उसे भी विपक्ष के लक्ष्यके लिए क्षयकालके समान सूर्यकिरण जालसे नारायणने नष्ट कर दिया। इस प्रकार सैकड़ों लाख करोड़से मुणित बहुत-सी दिव्य आयुधपंक्तियाँ छिन्न हो गयों। फिर प्रतिनारायण बहुरूपिणी विद्याके प्रभावसे और अपने कुटिल स्वभावसे लड़ता रहा। वह विद्या मी जनार्दनके पुण्य और श्यामवर्ण श्रीमतीके पुत्र द्वारा नष्ट कर दो गयी। तब उसने अपना चक्र हायमें लेकर और घुमाकर कहा कि "हाथी दे दो, निश्चय हो तुम मत मरो।" इसपर द्विपृष्ठने प्रत्युत्तर दिया, "क्या नक्षत्रके द्वारा चन्द्रमा जीता जा सकता है। यदि मैं तुम्हारे चक्रको अपने हाथमें ग्रहण नहीं करता, तो मैं वास्तवमें अग्निमें प्रवेश करूँगा । मूर्ख नपुंसक, तुम्हारे आघातसे कौन मरता है।" तब तारक राजाने चक्र छोड़ा।
९. A एंति । १०. P लोहवंता। १६. १. A सो पहिलउ । २. A तहि पेसिङ । ३.
हुववहि ।