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-४६. ५.१३ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
सहसा जायज सुरलोयखोहु । वीणारवु चलिउ किंणरोह । उच्च्छाहें रक्खस किलिकिलंति वईतई भूयई णहि मिलंति । किंपुरिस के वि किं किं भणंति सहिडिवेव पुच्छिवि मुति । रयत महोरय फुप्फुयंति गंधरुष गेयसरु सँई मुयंति । अणिषद्ध पिसायच लइ चवंदि दसदिसई जक्ख रयणई चिवति । ससहरैरवितेएं महि हवंति तारजे तारमणु पक्खति । दुग्गह गहचरियई णिक्नवंति जय पंद सामिय चर्षति । णक्खसई णवणक्खत्तमहिउ वंदहुंचलियाई षियाररहिन। दाविय णियपति पइण्णारहिं सासेहि पासपण्णएहिं। णहवडणविवरमुहणि मेहि दिसिविदिसाममासमागमेहिं । संगलियई मिलियई सुरभलाई भावणमाभरियई जलथलाई । घत्ता-अरावयकुभविइण्णकह पत्तउ जियपरसेणहु॥
एमयउ पुरपासहि भमि वि घरि पट्ट महसेणहु ।।५।।
शीघ्र हो देवलोकमें क्षोभ मच गया। वोणाके स्वरवाला किन्नर लोक चला। उत्साहसे राक्षस किलकारियां भरते हैं, बढ़ते हुए भूत आकाशमें मिलते हैं। कितने ही किंपुरुष कि कि का सच्चारण करते हैं, अच्छी दष्टिवाले देव पूछकर विचार करते हैं, वेगशील महोरंग फरकार करते हैं, गन्धर्व अपने गीत स्वर स्वयं छेड़ने लगते हैं ? पिशाच अनिबद्ध बोलते हैं, दसों दिशाओंमें यक्ष रत्नोंकी वर्षा करते हैं । चन्द्रमा और सूर्यको प्रभासे पृथ्यो अभिषेक करती है, तारागण भी अपना दीप्ति प्रदर्शित करत हैं ? खोटे ग्रह अपनी गहचर्याका त्याग कर देते हैं, और वे 'हे स्वामी, जय हो, आप वृद्धिको प्राप्त हों, आप प्रसन्न हों,' यह कहते हैं । नक्षत्र भी नव नक्षत्रोंसे पूजित और विकार रहित को वन्दना करने के लिए चले ! नागोंने अपनी पंक्तिका प्रदर्शन किया, जैसे क्षेत्र हल रेखासे निबद्ध धान्योंकी पंक्ति हो, आकाश पतनके विवर मुखोंके निर्गमों और दिशा विदिशा मार्गों के समागमनोंसे देवकुल मिलकर चले। भवनवासी देवोंको आभासे जल और स्थल आलोकित हो उठे।
पत्ता-जिसने ऐरावतके गण्डस्थलपर हाथ फैला रखा है ऐसा इन्द्र, वहाँ आया और नगर की चारों ओर परिक्रमा देकर, शत्रुसेना को जीतने वाले राजा महासेनके घरमें उसने प्रवेश किया ॥५॥
५. १. सुरलोइ खोह । २. A वगंता । ३. P पुप्फुयति । ४. P सयं । ५. A "तेय महि; P तेयई महि ।
६. P तारा3। ७. AP बद्ध। ८. A व वासपण्णएहि; P व वण्णापयपणएहि । ९. A°णिगहि । १०. संबलिय। ११. P भाभारिय जल।
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