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-६७. ३.१२ ।
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पर्यलियपल्लवरायं हृयवहपउलियसाहयं । दणं तं पायवं
चितइ णि ण णवं। होइ जयं पुणु णासए णिच्च चिय ण हु दीसए। घत्ता-जिह जग्गोइओ दाणि दिदुओ॥
तडिदंडाहओ सहसा गट्टओ ॥२॥
णासिहिति तिहहय गया देहो जो रसपोसिओ सिंभवसापित्तासओ इय भणिउंदा सिरि सिरिणायं सिहरणयं संबोहियबहुवणपरं विऊणं जाओ जई एयारह वि सुयंगई धरिऊणं हिययं दद इंदचंदकोंकित्तणं अहमिदेहिं विराइप तेत्तीसबुहिकालए
चिंधछत्तधामरचया। रयणाहरणविहूसिओ। सो वि ण होही सासओ। णियतणयस्स गओ गिरि । दरितरुकीलियपण्णय । सिरिणायं मणिवरं। सामतेहिं समं यई। पढिऊणं अविहंगई। चिण्णं चरियं णीसढं। बद्धं तिस्थयरतर्ण। संभूयड अवराइए। गइ थिइ छम्मासालए।
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बिजली की आगमें जलकर भस्म हो गया। उस वृक्षको देखकर राजा अपने मनमें सोचता है कि यह विश्व नया-नया होता है,फिर नाशको प्राप्त होता है।
पत्ता--जिस प्रकार इस समय वटवृक्ष विद्युत्-दण्डसे आहत सहसा नष्ट होता हुआ दिखाई दिया- ॥२॥
उसी प्रकार हाथी और घोड़े, चिह्न, छत्र और चामर-समूह नाशको प्राप्त होगा। रससे पोषित, रनाभरणोंसे विभूषित, श्लेष्मा (कफ), मज्जा और पिससे आश्रित यह शरीर भी शाश्वत नहीं होता। उसने यह विचार किया और लक्ष्मी अपने पुत्रको देकर राजा श्रीनाग पर्वतके लिए चल दिया कि जो पर्वतोंसे उन्नत था और जिसकी वाटियों में साँप कोड़ा कर रहे थे। जिन्होंने महतसे अनेक बनवरोंको सम्बोधित किया है, ऐसे श्रीनायक मुनिवरको प्रणाम कर यह सामन्तोंके साथ मुनि हो गया। अविभंग ग्यारह श्रुतांगोंको पढ़कर उसने निष्कपट चारित्र्य ग्रहण कर लिया । जिसका कोतन इन्द्र और चन्द्रमा करते हैं ऐसे तीर्थकरत्वका उसने बन्ध कर लिया। वह अमरेन्द्रोंसे विराजित अपराजित विमानमें उत्पन्न हुआ। वही उसके सैंतीस सागर आयु बीतने और छह माह शेष रहनेपर
A पदिय । ७. A परवा । ३. १.A चामरघया । २. A णमिकणं । ३. P परिऊणं ।