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________________ महापुराण जिणु वंदिवि णिदिवि अप्पणउं __ तें पिसुणि णिसुणिई तिहुयण । सिरिसेणे सेण पमेल्लविय सिरिसम्मइ सिरिसम्मइ यषिय । माहियोसि णिवासि सिरिपहु णियरइगइछाइयरविरहहु । तवु गहियउं महियर्ड दुरुचरित्रं चेद्विउ चिरु णिरु जिम्मच्छरउ । एत्तहि णंदणु र्णदणु जणहु पउणंतु अंतु दुकियरिणहु । आसाठि रूदि पंछीसरद छर्णससिहरि मणहरि वासरह । उववासिड तोसिस सुबमुह सहुं सविहिदि ससुहिहिं सुहमइहिं । पत्ता-अट्टरउहहिं चत्त धम्ममाणसंजुत्तः ॥ थिव अत्याणि णराहिउ णं णयलि ताराहि ॥४॥ १५ जांवच्छइ पेच्छइ जलियेदिस ता कामिणिचूडामणिसरिस। विहि विरलिय विलिय उक्क किह सुहबहसररुहमयरंदु जिह । तं पेच्छिवि परिच्छिवि सयलु संचियमलु चंचलु मुवणयलु । णियतणयह पणयहु लच्छिसहि अहिअल्लिय धल्लिय दिग्ण महि । पिउगुरुहि पुरुहि थिरु लइड वंड सिरु मुंडि देखि तेण वउ । समयसरणके लिए चला । विविध ध्वजवाले राजाने मकरध्वज (कामदेव) को जीतनेवाले जिनकी वन्दना कर अपनी निन्दा की। उसने जो कहा वह त्रिभुवनने सुना। श्रोषेणने सेना छोड़ दी और लक्ष्मी श्रीशर्मा को सौंप दो। अपनी कान्ति और गतिसे जिन्होंने सूर्यके रथको आच्छादित कर लिया है ऐसे श्रीप्रभ (श्रीपच के आशाओंका नाश करनेवाले निवासपर जाकर उसने सप ग्रहण कर लिया और दुश्चरितका नाश किया । उसकी पुरानी चेष्टाएँ मत्सरभावसे बिलकुल रहित हो गयीं। यहां लोगोंकी वृद्धि करनेवाले उस पुत्रने पापोंका अन्त करते हुए, आषाढ़ माहके प्रसिद्ध नन्दीश्वरमें पूर्णिमाके सुन्दर दिन, धैर्य सम्पन्न और शुभमतिवाले सुहृदोंके साथ उपवास किया और सन्तुष्ट हुआ। ___घत्ता-आठ रौद्रध्यानोंसे दूर और धर्मध्यानसे संयुक्त वह राजा दरबारमें बैठा हुआ ऐसा मालूम होता मानो नभतलमें चन्द्रमा हो ||४|| जब वह बैठा हुआ था तो जलती हुई दिशा देखता है। कामिनीके चूड़ामणिको तरह आकाशमें फेंकी गयी उल्का उसे ऐसी दिखाई दो जैसे चन्द्ररूपी कमलका पराग हो। उसे देखकर संचित मल चंचल समस्त भुवनतलको छोड़कर अपने प्रणत पुत्रको अहित करने वाली लक्ष्मीरूपी सलो त्याग दो और घरतो दे दो। अपने पिताके गुरु नगर में स्थिर वन लिया, सिर मुड़ा लिया, ४. A सेणय मेलविय। ५.A सिरिसमा सिरिकम्म। ६. P readsaas band basa. I ७. P महिलं । ८. सम्वेदित चिरु जिम्मछरिख । ९. AP झणसमहरि । १०.Aमणहवासरह । १.१. A सुमुहि हि सुमईहि; P मंतिहि सुहमइहि । १२. P अत्याणेण । ५. A जाम P जापच्छ । २. A जडिय। ३. P°वियलिय विरलिय। ४. P परियच्छिति । ५. A पुरहि: P गुरुहि । ६. K प्रज; P सब ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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