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________________ ४३६ महापुराण जे वुत्तु अहिंसावित्तिसुत्तु 'जो गणिवि ण याणइ अक्खसुत्त । जो दंसियसासयपरममोक्खु णन करइ पिणाएं कंडमोक्खु । जो तिउरउहणु जियकामदेव पट्ट परमप्पा देवाहिदेउ । जे रक्खिउ सण्हु वि जीउ कुंथु सो वंदिवि रिसिपरमेहि कुंथु । पुणु कह मि कहतह विच्च तासु दालिदुक्खदोहगाणासु । घसा-पत्थु जि जंबूवीववरि पुत्वषिदेहि महाणइ ॥, णामें सीय सलक्खणिय तं को वपणहूं जाणइ ॥ १॥ तहि दाहिमतौरइ वरुछदेसि डिंडीरपिंडपंडुरणिवासि । सोहिल्लसुतीमाणयरि रम्मि अणवरयमहारिसिफाहियथम्मि । सोहरहु सीह विकमु महंतु जरवा णियारिकुलपलक्यतु । अणुहुँजिवि भोई सुदीहकालु जोयत कहिं मिणहंतरालु । णिवेळेत णिहालिय तेण उक संसारिणि रह णोसेस मुक्छ । जइवसहहु पासि यत्तिपहिं पावड्यउ सहुं बहुख तिपहिं । एयारहंगधरु सीलवंतु षणि णिवसइ रक्खु व अणलवंतु । सिणि कणि सचित्ति उ चरणु देव वयविहिअजोन्गु दिपणु वि ण लेइ। हैं, जो हाथमें छुरी और खप्पर नहीं लेते। जिन्होंने अहिंसा-वृत्तिके सूत्रोंका कथन किया है, जो अक्षसूत्रोंको गिनना नहीं जानते, जिन्होंने शाश्वत परम मोक्षको देखा है, जो अपने धनुषसे तीरोंको नहीं छोड़ते, जो त्रिपुरका दाह करनेवाले और कामदेवको जोतनेवाले हैं, जो प्रभु परमात्मा और देवाधिदेव हैं, जिन्होंने सूक्ष्मजीवकी भी रक्षा की है, ऐसे उन ऋषि परमेष्ठी कन्धु जिनकी वन्दना कर, मैं फिर दारिद्रय दुःख और दुर्भाग्यको नष्ट करनेवाले उनके दिव्य कयान्तरको कहता हूँ। धत्ता-इस श्रेष्ठ जम्बूढोपके पूर्वविदेहमें लक्षणोंवाली महानदी सीता है। उसका वर्णन करमा कौन जानता है ? ॥१॥ ......... उसके दक्षिण किनारेपर वत्स देश है, जहाँके निवासगृह फेनसमूहके समान धवल हैं, जो शोभित सीमाओं और नगरोंसे सुन्दर हैं। जहां महामुनियों द्वारा अनवरत रूपसे धर्मका कथन किया जाता है। उसमें अपने शत्रुकुलके बलके लिए यमके समान सिंहके समान विक्रमवाला राजा सिंहरथ था। लम्बे समय तक भोगोंको भोग चुकनेके बाद किसी समय आकाशके अन्तरालको देखते हुए उसने एक टूटते हुए तारेको देखा, उसको संसारमें रति नष्ट हो गयो। जिन्होंने पोड़ामोंको आहत किया है, ऐसे अनेक क्षत्रियोंके साथ यतिवृषभ मुनिके पास वह प्रबजित हो गया । ग्यारह अंगोंको धारण करनेवाले शीलवान् वह वनमें वृक्षकी तरह मौन रूपसे निवास करते हैं। संचित कण और तृणपर वह पैर नहीं रखते। दो हुई जो चीज व्रतविधिके अयोग्य है, वे उसे ६. A omits this foot. ७. १ ण जाणा । ८. P जंबूदीवि वरि । २. १.A भोय । २. AP णिवति । ३. A सणे । ४. A विष्णण मेछ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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