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-५३. ११.१५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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जीह समीर भोयणडं surt इच्छित गेयरसु फासु वि मसण महइ ताई मणेण जि पव
परियवि विहसुहालस कुप्प तप्पड़ णीससइ
णाणाजन्महिं आइय उ कुलबलविद्दवगवगहिउ
उम्मग्गेण जि संचरइ
हुतिय अन्मुद्धरण
तु जिण गुणमाणिक्कणिहि
तु जणभणवेयालहरु
जो पई पणव सुद्धमई
दिट्ठि वि महिलालोयणडं ।
नासु गुणाहि गंधवसु । करणई पंच जीउ वहइ | विसय उपरि परिवइ । मोहमइरमयपरबसउ |
११. १. A अटुव । ५. Padds
दइ रडई गायइ हसइ । पैपिसाएं छाइय | गुरुणकहियसीलरहिउ | पण भडारा संभरइ |
तु जि देव विवस सरणु ।
ह।
अच्चयसुहहलनियसतरु । सो पाई वाणगई ।
पत्ता - बाईसरिवइ रिदुस डिसमंजसु गणहर ॥ बारहसयमय पुगधारि तहु मुणिवर || ११|
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"जीभ भोजनको इच्छा करती है, दृष्टि बोको देखना चाहती है, कानोंके द्वारा गीत-रस चाहा जाता है, नाक गुणोंसे अधिक गन्धके अधीन होती है, स्पर्श भी मृदु शय्याओंको महत्व देता है, इस प्रकार पाँच इन्द्रियोंको जीव धारण करता है । मनके द्वारा उनको प्रेरित करता है, और विषयों में उन्हें प्रवृत्त करता है, प्रसरित बहुसुखोंमें वह (जीव ) आसक होता है, तथा मोहरूपी मदिरा मदके अधीन हो जाता है। वह क्रुद्ध होता है, सन्तप्त होता है, निःश्वास लेता है, व्याकुल होता है, रोता है, गाता है, हँसता है, नाना जन्मोंमें आया हुआ ( यह जीव ) मोहरूपी पिशाचसे अभिभूत होता है । कुल बल और वैभव के अहंकारसे गृहीत गुरुजनोंके द्वारा कहे गये शोलसे रहित वह बोटे मार्ग से ही चलता है । हे आदरणीय, वह तुम्हारा स्मरण नहीं करता। आप त्रिभुवनका उद्धार करनेवाले हैं, हे देव, आप ही विद्वानों की शरण हैं, हे जिन, आप गुणरूपी माणिक्योंकी निधि हैं, आप भयानक पापरूपी कान्तार के लिए आग हैं, आप जनमनके अन्धकारको दूर करनेवाले हैं, आप अच्युत सुखरूपी फलके लिए कल्पवृक्ष हैं, जो शुद्धमति तुम्हें प्रणाम करता है, वह निर्वाणगति प्राप्त करता है ।"
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घसा - जिनके छियासठ गणधर थे और बारह सौ पूर्वागके धारी मुनिवर थे ॥ ११॥
२. A मेहरम P मोहमद्दरामय । ३. A पेमविसाएं। ४. वेयणहरु after पावई ।