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________________ २४४ १५ २० धम्मसलिलसिंचियधरो गुणवत्युविय दाउ परिपालयखमं सहणिवेहिं साहियमणो जाओ राओ मुनिवरो चरइ त सो जैरिसं पत्ता - णिरु पिपिहमइ परमेसरु माणसे असकाई बुझि सुयंगथाई इंडिया पीडिऊण अजिऊण चारु चितु भाषिऊण संतणा महापुराण महिओ ते जुगंध । scrore froदेओ । धमित्तस्स कुलकमं । सममणियतणकंचणो | गिरिगणे लंबियकरो । को किर वण्णइ तेरिसं । पंथहु लागउ || जिह देहें रिसि चितेण वि तिह सो जग्गड ॥ २ ॥ उज्झऊण खाणु पाणु णिग्गओ सरीरयाउ जम्मसायरे परंतु चंद्रकेत कति सुकि सोलसण्णवपमाउ ३ पंच पंच एकाई । तोचि नियंगयाई | दुक्कियाई साडिऊण | तिथणाणामु गोत्तु । झाइऊण धम्मझायु । ते मुक्कु झति पाणु | रईसरीरया | दुखविन्मेघडंतु | जायओ महंत सुधि । पोमलेसु सुब्भते । ५. A देहेण । ३. १ A वाविओ । १० प्रवर्तक धर्मरूपी जलसे धरतीको सिंचित करनेवाले अरहन्त युगन्धरको उसने पूजा की। पदार्थके भेदको उसने समझा । उसे निर्वेद उत्पन्न हो गया। जिसमें पृथ्वीका परिपालन किया जाता है, ऐसी कुलपरम्परा ( कुलराज्य ) अपने पुत्र ( धनमित्र ) को देकर, राजाओं के साथ अपने मनको साधते हुए, तृण और स्वर्णको समान मानते हुए वह राजा मुनिवर हो गया। गहन वनमें अपने हाथ लम्बे कर वह जिस प्रकारके तपका आचरण करता है, उसका देसा वर्णन कौन कर सकता है ? मार्गपर लग गये। जिस प्रकार वह पत्ता -- अत्यन्त निस्पृह-मति वह परमेश्वर अपने शरीर से ऋषि ( नंगे ) थे उसी प्रकार मनसे भो ॥२॥ [ ५३.२.१४ ३ अचिन्तित पांच पापों और इन्द्रियोंको एक किया सन्तप्त किया । इन्द्रियोंको पीड़ित कर, दुष्कृतों को नष्ट कर । श्रुतांगों को समझा। अपने अंगों को सुन्दर विचित्र तीर्थंकर नामका गोत्र अजित कर, अपने मनमें ज्ञानको भावना कर, धर्मध्यानका ध्यान कर, खान-पान छोड़कर उसने शीघ्र प्राणोंका त्याग कर दिया। शरीरसे इस प्रकार निकला मानो रतिरूपी नदोके वेग से निकला हो । जन्मरूपी सागर में पड़ता हुआ, दुःखोंके विलास में होता हुआ, चन्द्रकान्तकी कान्तिके समान सफेद महाशुक विमानमें उत्पन्न हुआ। सोलह सागर प्रमाण आयुवाले उसकी पद्मलेश्या थी, और वह
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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