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महावि पुष्पदन्त विरचित कुलबलजाईसामयं मोत्तं जम्म सामयं । काउं देह स्वामयं
जिह लद्धं मोक्खामयं । घसा-सिह इज भासमि सुणि सेणिय किं सिरिगावे ।।
जिणजिस गावि ५ पार्वे ॥१॥
पुक्खरखरदीवद्धए
मणुउत्तरगिरिरुद्धए। वडसरायसुरदारुणो
इंददिसासियमेकणो। पुष्वविदेहे जरुई पीणियखगडेलसंतई। तत्थै वारिमंथरगई सोया णाम महागाई। पायबसुरहिसमीरए तीए दाहिणतीरप । संतोसियणरवरमई
परदेसो वच्छावई। घरसिरकयणड्साइयं उच्छवपडाणिणाइयं । धुयधयमालाराइयं रयणरं रयणाइयं । तहिं राओ पङमुसरो जो सीलेण जगुत्तरो। देवी सरस मयच्छिया प्यामेणं धणलच्छिया। छोण्हं अणियाणंगओ दीहो कालो णिग्गओ। तलतमालतालीघणे
आलीणो पुरजववणे। सन्तुमिससमचित्तओ अनहो तित्थपवत्तओ। समझ लिया है, ऐसे उन परमात्माको में नमस्कार करता हूँ। उनको महाकथाको मैं कहता हूँ कि किस प्रकार उन्होंने तप स्वीकार किया। किस प्रकार कुल-बल-जाति और लक्ष्मीके मद और व्याधिसहित जन्मको छोड़कर और शरीरको कृश बनाकर मोक्षरूपी अमृत उन्होंने प्रार किया।
पत्ता- उस प्रकार मैं कहता हूँ, हे श्रेणिक ! लक्ष्मोके गर्वसे क्या, जिनके गुणोंका चिन्तन करनेसे चाण्डाल भी पापसे मुक्त होता है ॥१॥
मानुषोत्तर पवंतसे अवरुद्ध पुष्कराध द्वीप है। जिसके तटपर देवदारु वृक्ष उगे हुए है ऐसे पूर्वदिशामें आश्रित पूर्वमेरुके पूर्व विदेहमें लोगोंको अच्छी लगनेवाली, पक्षिकुलको परम्पराको सन्तुष्ट करनेवाली, जलसे मन्द-मन्द बहनेवाली सोता नामकी नदी है। उसके वृक्षोंसे सुरमित पवनवाले, दक्षिण सीरपर नरश्रेष्ठोंको मतिको सन्तुष्ट करनेवाला वत्सकावती वेश है । उसमें रत्नपुर नामका नगर है, जो गहरूपी सिरोंसे आकाशका आस्वाद करनेवाला है, जिसमें सत्सव नगाड़ोंका शब्द हो रहा है, जो हिलती हुई पताकाओंसे शोभित है और रत्नोंसे विजटित है। उसमें पयोत्तर नामका राजा था ओ शीलमें विश्वमें श्रेष्ठ था। मृगके समान नेत्रवाली उसको धनलक्ष्मी नामको देवी थी। कामदेवको जाननेवाले उनका बहुत-सा समय बीत गया । तल, तमाल और साली वृक्षोंसे सघन नगर-उपवनमें विराजमान, शत्रु और मित्र में समान चित्त रखनेवाले तीर्थ
२. १० जणएँ । २. A अगसहसंतई । ३. AP तेत्यु। ४. P तहिं मि राउ पलमुत्तरो।