SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ -४१. १३.७] महाकवि पुष्पदन्त विरचित मण्णेप्पिणु घर गिरिवरकंदर दढमुट्टिहिं उप्पाडिय कंदर । भावु करेवि अहप्पयरासिहि ते सक्केण पित्त पयरासिहि । दावियणिढे छहववासे जइ हूयउ सहुं णिवहं सहासें । मुक्कउ जीयधणासाकेयइ बीमाइ दिणि पट्ट साकेगा। पंथु पलोयइ जंतु ण खंडइ में भे भवइ व घरि घरि हिंडइ । लहुयउं गरुयउं गेहु ण चिंतइ अंगणु प्राविवि पुणु विणियत्तइ । घत्ता-जहिं रेजु कियउ तहिं तेण पुणु दरिसिउ भिक्खविहाणउं । भयलज्जामाणमयवज्जियउं जिणवउं पेम्मसमाणउं ॥१२॥ १३ सयमहदतें पहु पाराविउ पंचविहु वि जयजयपभणंतिहिं अक्खयदाणु भणेप्पिणु णिन्ग जो ण समिच्छइ विपरियावहु जेण मूलु रइवालहु छिण्णउं| जेण सहियवउंणाणे भिण्णउं 'णीसंगेण णिरुत्तु विहारिउ तहु देवहिं दाणुच्छवु दाविउ । आयासहु कुसुमाइं घिवंतिहिं ।। गउ वणु चरणविसेसहु लग्गउ । पहि चरंतु ण करइ इरियावहु । दाणु जेण अभयावहु दिण्णउं । अट्ठारहवरिसइंतवु चिण्णउं । पुणे वि जेण तं छट्ठ संवारिउँ । दीक्षासे अलंकृत कर लिया। गिरिवरकी गुफाओंको घर मानकर उन्होंने अपनी दृढ़ मुट्ठियोंसे केश उखाड़ लिये। पापोंको नाश करनेवाले उन केशोंको इन्द्रने समुद्र में फेंक दिया। निष्ठाको प्रदर्शित करनेवाले छठे उपवासके साथ एक हजार राजाओं सहित वह मुनि हो गये। जीव और धनकी आशारूपी डोरसे मुक्त वह दूसरे दिन अयोध्या नगरी गये। वह रास्ता देखते हैं जन्तुका नाश नहीं करते । भो-भो शब्द होता है, वह घर-घर परिभ्रमण करते हैं, छोटे या बड़े घरका विचार नहीं करते। प्रांगणमें जाकर फिर उसे देखते हैं। पत्ता-जहां उन्होंने राज्य किया था वहां उन्होंने भिक्षाके विधानका प्रदर्शन किया। भय, लज्जा, मान और मदसे रहित जिनपद प्रेमके समान है ।।१२।। १३ इन्द्रदत्तने उन्हें पारणा करायी। जय जय कहते, और आकाशसे फूलोंको गिराते हुए देवोंने, उसके दानका पांच प्रकार महोत्सव किया। 'अक्षयदान' कहकर वह चले गये और वनमें जाकर विशेष तपश्चरणमें लग गये। जो ब्राह्मणोंके ऋचापथ (वेदमार्ग) को नहीं मानते, जो रास्ते में चलते हुए ईर्या समितिका हनन नहीं करते, जिन्होंने कामदेवकी जड़को समाप्त कर दिया है, जिन्होंने सबको अभयदान दिया। जिन्होंने अपने हृदयको ज्ञानसे परिपूर्ण कर लिया और अठारह वर्ष तक लगातार तप किया, अनासंग भावसे लगातार विहार किया। फिर उन्होंने छठा उपवास ३. A भे भे विरह व, but records a p: भवइ इति पाठः। ४. A P पंगणु पाइवि । ५. A रज्जि । १३. १. Pणी संगत्तु । २. P पुणिवि । ३. A संचारिउ; P समारिउ ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy