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महाकवि पुष्पवम्त विरचित घता-मणिचूलु वि मस्थियसुरहर णिवदिवि हुड अणुमइतणउ ।
सो मूहल सोम्मु सुलेक्खणच दपणे जियणीलंजण ॥३॥
परदुजउ केसात मणि गणेवि कोकिस अर्णवीरित भणेवि । पढमह विरएप्पिणु पदृगंधु लहुयहु ढोइवि जुवरायचिंधु । सिंहासणु छत्तई परिहरेवि णिम्मोहभावभावणन लेवि । अरहंतह अविचिंतियपहासु पिर सरणु पठ्ठ सयपहासु । अवलोइवि करथइ णायराउ सिरितण्ड मरिचि फणिदु जाउ । पुरि सुहं वसंति ते वे वि भाइ णडि बवरि अण्णेक वि चिलाइ ! णमंति ताउ ते सहि जियात जा ताम इनोवासति । आयउ णारउ दिग्गयज्ञसे हिं संमाणित ण रसपरवसेहिं । पत्ता-मणि रोसु हुयासणु पनलिष्ठ सह९ ण सकिल चैलियगहि ।।
सो जंतु ण केण थि दिदछु तहिं पवणु चहलु उल्मलिउ जहि ॥४॥
१.
गड रूसिवि सिधर्मदिरपुरासु दमियारिहि विज्जाहरणिवासु । वजरिउ सेणा रयणाई कासु पई मेल्लिवि को महियलि महीसु । वावरिचिलाइणामालियाउ णणि दोषिण बरबालिया।
पत्ता-मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमानसे च्युत होकर अनुमतिका पुत्र हुआ। वह सुभग सौम्य सुलक्षण रंगमें नील और अंजन पर्वतको जीतनेवाला था ।शा
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मनमें बलभद्रको शत्रुओंके द्वारा अजेय समझकर उसे अनन्तवीर्य कहकर पुकारा गया। पहलेको पट्ट बांधकर और छोटेको युवराजके चिह्न देकर सिंहासन और छत्र छोड़कर निर्मोह भावनाका चिन्तन करते हुए वह अचिन्तनीय प्रभाववाले स्वयंप्रभ अरहन्त की शरणमें गया। कहींपर नागराजको देखकर लक्ष्मीको कामनासे मरकर वह धरणेन्द्र हमा। वे दोनों भाई उस नगरीमें सुखपूर्वक रहने लगे। उनकी बर्बरी और किलाती नामकी दो नर्तकियो थीं। जब वे दोनों नाच रही थी और वे दोनों देख रहे थे तभी हार हिम और हास्यके समान कान्तिवाले श्री नारद मनि आये। दिग्गजोंके समान यशवाले रसके वशीभत (नाट्यरस) उन दोनों के द्वारा उनका सम्मान नहीं किया गया।
पत्ता-उनके मन में क्रोधको ज्वाला भड़क उठी। वे उसे सहन नहीं कर सके, आकाशमें जाते हुए उन्हें कोई नहीं देख सका । पवनको तरह चंचल वे आकाशमें उछल गये ||४॥
वह रूठकर दमितारि राजाके निवास शिवमन्दिरपुर गये। उन्होंने वहाँ कहा, "रल किसके पास हैं, आपको छोड़कर धरतीपर और कौन राजा है ? बर्बरी और किलात नामकी दो
४. A मणिचूक्लि । ५. A सुरवरह णिवडिबि ताहि जि हुल तण उ । ६. A सलक्षणठ । ४. १.AP सोहासणु । २. A बलियम्गहि ।