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________________ -५७. १८.२] महाकवि पुष्पदन्त विरचित ३०५ गयमोत्तियई दंतजुयसहियई वणि सिगालभिल्ले संगडियई। पणिय सत्थवाहु हिमपण्णई पुरसेटिहि षणमित्त दिण्णई। सीहसेणतणयहु असधाम शामिण वि सणाक्षिण मई ! कारिय तेण तमीयरकंतिहि णियमंचयह पाय गयदंतहिं । णियसीमंतिणियेहि लहरिद्धई मोत्तियाई कोडग्गि णिबद्धई। हो केत्तिउ संसारु कहिज्जा जं विर्ततहं मह दुम्मिज्जा। मोहमहंतह णिहर मुत्तर अच्छइ सुहि णं मुर्छिस सुचः । जाहि अम्मि तुह क्यणे जग्गइ। पुण्णेयंदु जिणधम्म लग्गइ । णियणंदणमुणिवरवयणुल्लउ । तं आयणिवि सवणमुहिल्लह । गय मायरि नहिं जहिं तं पट्टणु जहिं सो राणज वइरिविहट्टणु । धत्ता-पणवंतह पुतहु परियणहु अज्जैइ सुमहुल साहिय८ ॥ जिह राएं जाएं मयगलिण णिज्जणु गहणु पसाहियां ॥१७॥ १८ जंधणमिर्स आणि आयउ तं दियमुसलजुवलु तहु केरउ पल्लंकहं पयजोग्गर जायउ । मुत्ताहलणिठलंबर सारठ। १७ वनमें शृगाल नामक भीलने दोनों दांतोंके साथ गजमोतियोंका संग्रह कर लिया और वणिक् सार्थवाह नगर सेठ धनमित्रको सफेद रंगके मोती और हाथीदांत दे दिये। घनमित्रने भो वे सिंहचन्द्रके पुत्र यशके घर पूर्णचन्द्रको दे दिये । उसने भी चन्द्रमाके समान कान्तिवाले गजदन्तोंसे अपने पलंगके पाये बनवा लिये तथा कान्तिसे समज मोतियोंको अपनी पत्नीके गलेमें लगा दिये। अरे संसारका कितना कथन किया जाये ? जिसका चिन्तन करते हुए बुद्धि पोहित हो उठती है? मोहको महान निद्रासे भुक सुषोजन स्थित है, मानो मूर्षिछत या सोया हुआ हो। हे मां, तुम जाओ। तुम्हारे दयनोंसे पूर्णचन्द्र जागेगा और जिनधर्मसे लगेगा। अपने पुत्र मुनिवरके कानोंको सुखद लगनेवाले वचन सुनकर वह माता वहाँ गयो जहाँ वह नगर था और जहाँ शत्रुओं का नाश करनेवाला बह राजा था। पत्ता-प्रणाम करते हुए पुत्र और परिजनसे आर्यिकाने सुमधुर वाणीमें कहा कि किस प्रकार राजाने मैगल गजके रूपमें गहन वनका सेवन किया ॥१७॥ १८ जो धनमित्रने लाकर दिया और जो पलंगके पाये बने वह हाथोके दोनों दांतस्पी मूसल हैं तथा श्रेष्ठ मुक्ताफल समूह उसका (गजका ) है जिसे तुम प्रणयिनीके गले में देखते हो। हे पुत्र, सुम श्रावक व्रतोंका पालन करो। हे पुत्र, यह संसार बड़ा विचित्र है। हे पुत्र, राजा भी कर्मरत १७. १. AP सिंगाल भिल्लें गहियई । २. A °सीमंतिणिपहपरिवहं । ३. AP कंगि । ४. A भूमिछपसुत्ता। ५, A पृष्ण इंदु । ६. A अज्जिए । ७. A णिज्जगहणू।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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