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-१५.१०.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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सहि दिणि जयवेइ वदासियन मणपतवणणे भूमिगत । बीयइ दिणि आयत गंदईन fदेण णमंसिउ पुरिसंपुरु। शाणाणलहुयवम्मीसरहु
आहार दिण्णु परमेसरहु । मणिपुजें ढंकिज तासु गिह तहिं चोजु वियंभि पंचविहु । छउँमत्थे मेइणियलु भमिवि संघच्छर तेण तिणि गमिवि । दिखावणि जंबूरक्खयलि माइम्मि मासि ससियरधदलि। छहइ दिणि दिवसभाइ अवरि छवीसमि जायइ उडुपवरि। देवें केवलु उपाइयर्ड
तियसउलु ण कत्थई माइयां । गयणग्गलम्गमाणिकसिद्ध
संपत्तष दद्दविहु अट्ठविहु । छाइयण मंडल पंचविड सोलह विहु तेत्थु वि तंतिविछ। घत्ता-थुणा सुराहिवइ कुसुमई धिवइ अरुहहु 'उप्परि पायहं ।।
जिण तुहुँ गयमलिणि हियवयणलिणि वसहि रिसिहि इयरॉयह ॥९॥
बत्तीसह इंदह तुहं हियह तुहं चंदु ण चंदु विमलवाहणु तुहुँ सरहि ण सरहि वि खारजहु
तुई संसेविउ सासयसियह । तुहं सूरु ण सूरु वि णिहष्णु । तुई हरु णउ हरु वि पमंत्तु गहु।
उसी दिन जगत्पतिने उपवास किया और मनःपर्ययज्ञानसे विभूषित हो गये। दूसरे दिन वह नन्दपुर गांव आये। उन श्रेष्ठ पुरुषको नन्दने नमस्कार किया। ध्यानको अग्निमें कामदेवको भस्म करनेवाले परमेश्वरको उन्होंने आहार दिया। रलसमूहसे उसका घर आच्छादित हो गया। वहां पांच आश्चर्य प्रकट हुए। छद्मस्थ रूपमें धरतीमें विहार कर उन्होंने तीन साल बिता दिये । माघ शुक्ला षष्टीके दिन, दीक्षावनमें ही जम्बूवृक्षके नीचे दिनके अन्तिम भाममें, छब्बीसवें उत्तराभाद्र नक्षत्रमें देवको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। देवकुल कहीं भी नहीं समा सका। जिनके माणिस्यों की शिखाएं आकाशतलको छू रही हैं, ऐसे आठ प्रकार और दस प्रकारके देव आये। और आकाशमण्डलको आच्छादित करनेवाले पांच, सोलह और तीन प्रकारके देव वहाँ आये।
पत्ता-देवेन्द्र स्तुति करता है, और अरहन्तके चरणोंके ऊपर पुष्प वर्षा करता है कि "हे जिन, तुम मुनियोंके द्वारा रागको नष्ट करनेवालोंके मलसे रहित हृदयरूपी कमलमें बसते हो" ॥२॥
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तुम बत्तीसों इन्द्रोंके हृदयमें हो, तुम शाश्वत श्रीके द्वारा सेवित हो, तुम चन्द्र हो, चन्द्रमा विमलवाहनवाला नहीं है । तुम सूर्य हो, जलनेवाला सूर्य सूर्य नहीं । तुम समुद्र हो, खारे जलबाला
सम्मत्थे । ५.A बावीसमि: P छावी
५.I.AP जहवाइ । २. AP दिउम1 ३.AP परिसवरू । ४.
समि । ६. AP छान महमंडल । ७. A गयरामहं । १०.१.A पमत्तगई।