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________________ २८० महापुराण [ ५१. १०.४पई एहउ तेहल जंकह मि तं हर बुहलोइ हासु लहमि। जहिं अच्छा तिजग परिटियल। जें रुद्धरं णिश्चलु संठियक्ष । संचलइ जेणे जे परिव जै णिशमेव चेयण वहह । जं वरणगंधरसफासधक जं अवर वि काइं वि चह अचर। पई दिइ दीसइ सयलु तुदृइ दढमोहलोङ् णियलु । पई दिट्ट मुच्चइ चगइहि पहु होइ जीउ पंचमगइहि । तुह सुहि संपावइ परमु सुर्ख वहरियड णिरंतर तिन्वु दुहुँ । तुहुं पुणु दोहं मि मज्झत्थमणु इर्य भोज़ सहियवद धरइ जणु । पत्ता-चेईहरवणहिं बहुतोरणहि धयपतिहि पिहिये ।। परिहागोरहिं सालहि सरहिं समवसरण किल सकें॥१०॥ १० ११ तहिं जाया णीसरंतझुणिहिं पपणास पंच गणहरमुणिहिं। गजंतमेहगंभीरसर एयारहसयमिय पुम्वधर । छत्तीससहस पुणु पंचसय तीसुत्तर सिक्खुये मुणियणय । चत्तारि सहस अडसयवरह अणगारह सव्वाबहिहरह। ५ पणसइसई अवह वि पंचसय घोसति साहु संजय विमय । केवलिहिं रिसिहि मणपायहं वसहसई वेउवणवयहं। समुद्र समुद्र नहीं है । तुम शिव हो, नृत्य करनेवाला और प्रमत्त शिव शिव नहीं है। उनको जो तुम जैसा मैं कहता हूँ तो मैं पण्डित समाजमें हास्यका पात्र बनता है। जहां त्रिलोक प्रतिष्ठित है। जिसके द्वारा वह रुख और निश्चल रूपसे संस्थित है, जिससे चलता है और परिणमन करता है, जिससे नित्यरूपसे वह चेतनाको धारण करता है। जो वर्ण-गन्ध-स्पर्श और रूपको धारण करता है; और भी जो दूसरा चर-अचर है, तुम्हें देखनेपर वह समस्त दिखाई देता है, और दृढ़ मोह श्रृंखलाएं टूट जाती हैं। तुम्हें देखनेसे जीव चार गतियोंसे छूट जाता है, हे स्वामी, मुझे पांचवीं गति प्राप्त हो। तुम्हारा सुधि परम सुख प्राप्त करता है, और तुम्हारा शत्रु निरन्तर तीव्रतम दुःख प्राप्त करता है। लेकिन तुम दोनोंके प्रति मध्यस्थ मन रहते हो, लोग अपने हृदयमें इस आश्चर्यको धारण करते हैं। धत्ता-सूर्यको ढकनेवाले इन्द्रने चैत्यगृहयनों, बहुतोरणों, ध्वजपक्तियों, परिखा और गोपरों, शालाओं और सरोवरोंके द्वारा समवसरणको रचना की ॥१०॥ ___ वहाँ उनके जिनसे ध्यान खिर रही है, ऐसे पचपन गणधर मुनि हुए। गरजते हुए मेघके समान गम्भीर ध्वनिवाले ग्यारह सो पूर्वधारी, छत्तीस हजार पांच सौ तीस शिक्षक मुनि । चार हजार आठ सौ पूर्ण अवधिज्ञानवाले मुनि, पांच हजार पांच सौ साधु संयत विमद केवलज्ञानी कहे जाते हैं। पाँच हजार पाँच सौ मनःपर्ययजानी थे। नौ हजार विक्रिया-ऋद्धि धारण करनेवाले २. A जेण जे परि । ३. A परिउ ण णिरं । ४. । इह । ". A पिहियकहिं । ६. A सक्किहिं । ११.१.A सिखिय ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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