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महापुराण
जयसिरिरामाच ठिएण जणविभयभायुपाययेण अवलोइड चिंघचलंत मयरु पुच्छि से मंति मणु कासु सिमिक दुब्व सण विसेस कर्यंत एण रमणीय पैस पुराहि वेण भीएण देव परिहरिदि दप्पु मायंग तुरय मणि विश्व चीरु असिकरकिंकरर विखज्नमाणु
घत्ता -- विहसंतें भणिचं अनंतें म पेक्त
तामं वृत्त भो कुमार महुराउ भणहि महुघोट्ट काई भयवंत रेसर मिलि बहिय
घरसत्तमभूमि परिणि । ऐकहिं वासरि नारायणेण । पुरवादिति सा ates भूसणरुइरहिय तिमिल । तं णिसुणिवि वुत्तु महंतएण । मंडलियएं ससिसोमें णिवेण । मरणाहहु पेसियर कप्पु |
कडित्तयद्दारिहरु । ओच्छ पत्थु णिबद्धठाणु पालियेचाउण्णहु || जाइ कप्पु किं अण्णहु ||५॥
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दुबई - जिम लंगलि गरिंदु जिम पुणु हउं पुद्दविहि अवरु को पहू || छिउ घिमि कुद्धकालामणि विक महू व सो महू ॥ किं गजस किर परतत्तियार |
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हा ण बियाणहि तुहुं तहु क्याई । महि जेण विखंड बलेश गहिय ।
और गरुड़ सेना के अधिपति थे । उन दोनोंका साहस अचिन्तनीय था। विजय श्रीरूपी रमणीके लिए उत्कण्डित घरकी सातवीं भूमिपर बैठे हुए, जिसे लोगों में विस्मयका भाव उत्पन्न करनेकी इच्छा हुई है, ऐसे नारायणने एक दिन नगरके बाहर जिसमें ध्वजसमूह हिल रहा है, ऐसा तम्बुओं का समूह देखा । उसने अपने मन्त्री से पूछा कि यह किसका शिविर है कि जो भूषणों की कान्तिसे अन्धकार रहित है। यह सुनकर दुर्व्यसन विशेष के लिए यमके समान मन्त्रीने कहा कि रमणीक प्रदेशके अधिपति शशिसोम नामक भयभीत मण्डलोक राजाने हे देव, दर्प छोड़कर मधु राजा के लिए 'कर' मेजा है। गज, तुरग, मणि, दिव्य वस्त्र, कंकण, कटिसूत्र और सुन्दर हार । जिनके हाथों में तलवारें हैं, ऐसे अनुचरोंके द्वारा रक्षित वह शिविर अपना स्थान बनाकर ठहरा हुआ है।
घत्ता - तब नारायणने हँसते हुए कहा - "चातुर्वर्ण्यंका पालन करनेवाले मेरे जीवित रहते और देखते हुए क्या किसी दूसरे के लिए कर जा रहा है ? ||५||
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जिस प्रकार हलधर राजा है और जिस प्रकार में राजा है, उसी प्रकार पृथ्वीपर और कौन राजा है ? मैं निश्चय हो उस मधुको पके हुए मधुको तरह कुछ कालके मुखमें फेंक दूंगा ।" इसपर मन्त्री बोला - "दूसरोंकी तृप्ति करनेवाले है कुमार, आप क्यों गरजते हैं ? तुम राजा मधुको मधुका घूँट क्यों कहते हो ? अफसोस है आप उसके किये हुएको नहीं जानते ? उसने मदवाले सारे
५. १, AP एवम् वियहि । २. A सुमति । ३ AP रमणीयवेस । ४. A बाय ५. A परिवाि within the margin,