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परिचयास्मिका भूमिका स्व, रायबहादुर हीरालालने दिया है। इस पाण्डुलिपिकी तिथि, संवत् १६०६, मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष अष्टमी, को १५४९ ई. है। १९२५-१९२९ में मैंने व्यक्तिगत रूपसे कारंजा जाकर इस पाण्डुलिपिका परीक्षण किया है, और जायके तौर पर कुछ मिलान किया है। मुझे मन्दिरके ग्यासधारियोंने यह वचन दिया था पाण्डुलिपि मुझे सपारदी जायेगी। लेकिन जब मुझे वास्तविक रूपसे इसकी जरूरत पड़ी, तो मैं क्यासधारियोंकी बिचित्र मनोदत्तिके कारण उसे प्राप्त महीं कर सका । अपने जांच मिलानसे, लगता है कि यह पाण्डुलिपि 'पो' पाण्डुलिपिक बहुत निकट है, जिसका कि इस संस्करणमें पूरा मिलान किया गया है।
इस जिल्दमें, मैंने अपने मूल पाठकी रचना ऊपर लिखित सामग्रीके आधारपर की है। ऐसे करते हुए मैं 'के' में सुरक्षित पाठोपर अधिकतर निर्भर रहा हूँ जो उसरपुराणकी दोनों पाण्डुलिपियों में सबसे पुरानी है।
विषयसामग्रीको संक्षेपिका २. महापुराणको इस दुसरी जिल्दमें महापुराण महाकाव्यको ३७ से ८०-कुल घपालोस सन्षियो है, और बीस तीथंकरोंकी जीवनियों का वर्णन करती है। अजितनाथसे प्रारम्भ होकर नमिनाथ तक, जो २१ तीर्थकर है। भीम से आठवी , वासुदेवों और प्रतिवासुदेवोंका वर्णन है । और बारह चक्रवतियोंमेंसे दस चक्रवतियोंका, सगरसे लेकर जयसेन तक। इन जीवनियोंके वर्णनमें कबिने परम्परासे प्राप्त सूचनाओंसे काम लिया है, वह अधिकतर गुणभद्रके संस्कृत उत्तरपुराणसे प्रभावित है, ऐसा प्रतीत होता है कि इन महापुरुषोंकी जीवनियों का विस्तार, पुराने साधुओंने वर्गीकृत कर दिया था। परन्तु विषयवस्तुका उपयोग करते हुए व्यक्तिगत रूपसे कवि, विस्तत वर्णनमें अपनी काव्य-प्रतिमाके उपयोगमें स्वतन्त्र थे। विमलमूरिने 'पउमचरित' में कहा है
'नामावलिय निबद्ध आयरियपरम्परागयं स ।
बोच्छामि पढमचरियं अहाणुविध समासेण 11 ऐसा लगता है कि यद्यपि, जैनोंके दोनों सम्प्रदायों में जानकारी अधिकतर वर्गीकृत और तालिकाबद्ध रूपमें परम्परासे प्राप्त है, और विषयवस्तुमें काफी समानता है। मैंने स्वयं कुछ तालिकाएं बनायो है और उन्हें इस जिल्पके परिशिष्टमें दिया गया है। अब मैं सम्धियोंका संक्षेप देना शुरू करता है कि जहाँ सन्धियोंका संक्षेप तालिका के रूप में देना सम्भव नहीं है।
XXXVIII कवि प्रारम्भमें पांच परमेथियोंकी बम्बना करता है और दूसरे तीर्थकर, अजितनाथ की जीवनीका वर्णन करते हुए, पाठकोंको काव्यरचना जारी रखनेका आश्वासन देता है। प्रारम्भ करने के पहले, यह बहता है कि कुछ कारणों से उसका मन उदास था और इसलिए उसने कुछ समय के लिए काम्य रचना बन्द कर दी थी। एक दिन विद्याकी देवी सरस्वतो उसके सामने स्वप्नमें प्रकट हुई और बोली, 'तुम महंन्को नमस्कार करो। कवि जाग पहा पर उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया । संकटके इस क्षणमें मात्रयदाता भरत उसके घर बाया और बोला कि क्या मैंने उसके प्रति कोई अपराध किया है कि जिसके कारण यह काम्परचना जारी नहीं रख सका । भरतने उसे स्मरण विलाया कि जोवन क्षणभंगुर है, और उसे अपनी काव्यप्रतिभाका पूरा-पूरा उपयोग करना चाहिए। तब कवि ने आश्रयदाता भरतसे कहा कि मैं अपने मन में दुःखी हूँ, क्योंकि यह दुनिया दुष्टोंसे भरी है। और इसलिए काव्यरचना जारी रखने की कृषि उसमें नहीं है। लेकिन अब वह उसकी प्रार्थनापर फिर काग्यरचना शुरू करेगा क्योंकि वह उसे इनकार नहीं कर सकता। कवि काव्यरचना प्रारम्भ करता है और अजिसके जीवनका वर्णन करता है, विस्तारके लिए देखिए टिप्पण और तालिका । परिशिष्ट I, II, III में देखिए !