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महापुराण
और प्रत्येक पंक्तिमें ३३ अक्षर है 1इसको तिथि भाद्रपदको पूर्णिमा है ( अगस्त-सितम्बर); वि. स. १६३०, ई. १५७३ के लगभग । इस पाण्डुलिपिका अन्तिम पृष्ठ क्षतिग्रस्त है और इसलिए फिरसे लिखा गया, आषाढ शुक्ल छठीको ( जुलाई ) वि. सं. १९३४. ई. स. १८७७ के लगभग । इसमें पार्श्वभागमें संक्षिप्त टीका है। यह इस प्रकार प्रारम्भ होता है; ओं नमः वीतरागाय । बभहो । बंभालयसमियहो। मूल पृष्ठका अन्त इस प्रकार है इय महापुराणे-दुइत्तरसमो परिच्छेमो समत्तो। दूसरे रूप पाठ इस प्रकार है : संवत् १६३० वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे पूणिमादियो, के (वि वासरे उत्त), रा भाद्रपदा नक्षत्रे, नेमिनाथ चैत्यालये, श्रीमूक्षसंधे-बलात्कार छे कुंवकुंदाम्बये-स्थापन्न पुछका अम्त इस प्रकार होता है। बलदेवदास टौंग्याका कारण, मीती अषाढ सुदी ६समत १९३४ का सालम, श्री पीया मंडीका मंदिर पंचाहत। मदरने सहायो ॥ 01010॥इन बलदेवदासके पास क्षतिग्रस्त पना दी हिस्सोंमें था, जिसका पहला हिस्सा, अभी भी, मूल पाण्डुलिपिके साप संस्थान में सुरक्षित है। मूल पृष्पर १६३० अंकित है, और मूल पृष्ठपर पट्टावलीवाला हिस्सा, किसी दूसरे हाथसे लिखा हुआ प्रतीत होता है।
उक्त ती पालिपियोंके सम्पूर्ण मिलानके अतिरिक्त प्रभाचन्द्र के टिप्पणका पूरा उपयोग किया गया है। इसकी पाण्डुलिपि, प्रोफेसर हीरालाल जैन ने, श्री मोतीलाल संघी जैन, जयपुर से प्राप्त करायो । गिनती इस पलिमें ५५ मत है। जो जगाई-पोलाईमें १२४५ इंच है। प्रत्येक पृष्ठमें १३ पंकियां और प्रत्येक पंक्तिमें ३१ अक्षर है। यह प्रारम्भ होता है-थों नमः सिद्धेभ्यः, बमहो परमात्मनो । अन्त इस प्रकार होता है-श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक सहस्र, महापुराण-विषम-पद विवरणं सागरसेन सैद्धान्तान् परिज्ञाय, मूल टिप्पणकां बालोश्य कृतमिदं समुचयटिप्पणं । अज्ञपातभोलेन श्रीमद्बलाकारगण श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्येण धोचन्द्रमुनिमा निजदोर्दण्डाभिभवरिपुराज्यविजमिनः श्रोभोजदेवस्य ॥१०२॥ इति उत्तर पुराण टिप्पणक प्रभाषन्द्राचार्यविरचित समाप्त छ ॥ अथ संवत्सरेऽस्मिन् श्रीनृपविक्रमादिस्यगतामा संगत् १५७५ वर्षे भाद्रवा सुदि । बुद्धि दिन । कुरुमांगल देसे । सुलितान सिकन्दर पुत्र सुलतानाब्राहीम सुरतात्र प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंषे मायुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्रोगुणभद्रसूरिदेवाः । तदानाये पैसवालक पी. टोडरमल्ल । इदं उतर पुराण टीका लिखापितं । सुभं भवतु । मागल्यं ददाति, लेखकपाठकयोः।
__ ओम् सिखोंको नमस्कार, ब्रह्म और परमात्माको नमस्कार। श्री विक्रम संवत्के एक हजार अस्सी अधिक होने पर, महापुराणके विषम पदोंका विवरण. सागरसेन सद्धान्तसे { ?) को ज्ञातकर और मूलटिप्पणियाँ देखकर, यह समूचा टिप्पण किया गया। अज्ञपात भीत श्रीमत् बलात्कार गणके श्रीसंघाचार्य सत्कवि शिष्य बनमुनिने, अपने पाइदण्डसे अभिभूत मात्र राज्यको जीतमेवाले श्रोभोजटेयके । प्रभापन्द्राचार्य द्वारा विरचित उत्तरपुराण टिप्पण समाप्त था। अब इस संवत्सर नप विक्रमादित्य गत १५०५ वर्ष भादों सुदी, बुधवार । कुरुजांगल देशमें सुलतान सिकन्दरके पुत्र सुलतान इब्राहीमके द्वारा सुराज्य स्थापित होने पर, श्रीकाष्ठासंघ, माथुरान्वय, पुष्करगण । भट्टारक श्रीगुणमद्रसूरीदेव, उनके आम्नायमें
सपा .चौ. टोबरमल । यह उत्तरपुराण टीका लिखवाई। शुभ हो। मांगल्य देता है-लेखक और पाठकको ।
इस पाण्डुलिपिकी पुष्पिका कुछ दिलचस्प समस्याएं खड़ी करती है? जिनका मैंने प्रथम जिल्दके प. मह पर विस्तारसे विचार किया है। इसलिए यहां उनका फिरसे कथन और परीक्षण अरूरी नहीं है । मुझे यहाँ केवल यह कहना अरूरी है कि मैंने 'टी'का पूरा उपयोग किया है, और के. और पी.के हाशियों पर अंकित टीकामोंका भी, पाव-टिप्पणियों को रथमा ।
उत्तर पुराणकी एक और पाण्डुलिपि मुझे ज्ञात है। यह कारंजा (रार)के बलात्कार गण जैन मन्दिर में सुरक्षित है। सी. पी. एण्ड परारक संमत-प्राकृत टलागमें इसका क्रमांक ७०२९ है। यह क्रमांक