________________
४२०
१०
५
१०
महापुराण
महुं के चाभ आएं महु सोलु णिरिक्खिय घत्ता -- एव वयणु पिसुणेपिंणु बंदिवि जिणवरसासणु
इहुआ कुछ अजायरुः | चित्तेण असेसु परिक्खियउ । पक्खें रोसु मुरपिणु ॥ कयडं चिहिं मि संणासणु || १७||
१८
बेष्णि वि सुरूवअद्दरूववर राहु तेहिं संमाणियउ परउरवि निविङमाण घरिय गय सुरवरराएं दमबरहु दुंदुहिरच मणिकंचणवरिसु मरु सुरहियेगु थरुह दीसरि पोस करिवि सुरणिय कहु फेरचं चरिउ पई पत्ता - ते नियगुण रक्खिड मई संधु परमेस्वरु
वडि
[ ६२.१७.१०
सुररमणवणंतर जाय सुर । पई दे जाणि । अम्दई मि कुजोणिहि णीसरिय । कथ भोजजुत्ति संजमधरहु । सुरजयसरु पाउसु कयह रिसु । जणु जण दाणु विलसिड कहइ । थि पडिमाजोएं जिणु सरिषि । अण्णहिं देवहिं आयण्णिय । की तु वि गरुय देवें सई । सुरवरराएं अक्रि ॥ सिरिमेहरहु महीरु || १८||
सुनकर यह अच्छा नहीं लगनेसे क्रुद्ध होकर यहाँ आया है। इसने मेरे शोलका निरीक्षण किया और चित्तसे सबकी परीक्षा की।
घता - यह वचन सुनकर क्रोध छोड़कर तथा जिनवर शासनकी वन्दना कर दोनों ( पक्षियों ) ने संन्यास ले लिया || १७ ||
१८
दोनों सुररमणवन (देवारण्य ) के भीतर सुरूप और अतिरूप नामके देव हुए। उन्होंने राजा (मेघरथ) का सम्मान किया ( और कहा ) हे देव, तुमने हो संसार में धर्मको जाना है । तुमने रौरव नरकमें जाते हुए हमें पकड़ लिया और हम लोगोंको कुयोनिसे निकाल लिया | सुरवरराजके जानेपर उसने दमवर संयमधारीको भोजनयुक्ति ( आहारदान ) को । दुन्दुभि शब्द, मणिकनकी वर्षा, देवोंका जयस्वर, हर्ष उत्पन्न करनेवाली वर्षा, सुरभित हवा मन्थर-मन्थर बहती है । जन-जनोंसे दानका प्रभाव कहते है । फिर नन्दीश्वरमें प्रोषधोपवास कर जिनको स्मरण करते हुए वह प्रतिमायोग में स्थित हो गया। ईशानीकने वर्णन किया और दूसरे देवोंने उसे सुना (और पूछा कि तुमने स्वयं किसके चरितका वर्णन किया । हे देव, तुमसे महान कौन है ? बत्ता - उस सुरेन्द्र ने अपना रहस्य छिपाकर नहीं रखा। सुरवरराजने कहा- मैंने परमेश्वर श्री मेघरथ परमेश्वरको स्तुति को है ||१८||
६, A वायसुभो । ७. A कुड़ व जाय । ८. P विलुणेबिणु । १८. १. AP तु देव । २. AP देउ । ३ AP तं ।