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-६२, १७.९ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
चाइतणु तेर किं करइ मई चाट करेव तेम तिह वर अच्छणिग्गुणु छुट्टियतणु किं वधु भणिज्जइ पत्तु गुणि पत्ता- --- जेहिं नियागमि वृत्त तेलति दुणिरिक्खई
तं सुणिवि देव संसियट ग अमर णिवासुरण भनि को एहु किमत्थु समागमणु पदभयारिहि रणि पाइयड भवि भमिव सुरु कइलासर्याद वर सिरिदत्ताकंतावस चंदाहु णामपि पाणपिङ जो इस कुलि उप्पण्ण अमर ईसाणणाम कप्पाद्दिवइ
तो विष महिव वज्जरइ । जिउ ण सर ण हवइ हिंस जिह । पण ओयाविव पाणिगणु । आहार असुद्ध ण लेति मुणि । आमिसु दिण्डं मुत्तरं ॥ भवि भवि विविहई दुक्ख ||१६||
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मेहरहु सिरेण णमंसियड । कोहलु महुं हियवइ जणिउ । तो कह राहिल रिदमणु । भरहु णामणि चाय । वणि पैष्णकंततीरिणिणियद्धि ।
जय सोम्ताबसहु । पंचग्गिता तर तेण किड गउ जहिं हरि अच्छइ कुलिसकरु । तहिं तियस णिणिवि वयणगइ !
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दोगे तो गोषका नाश है और मांस देनेपर कबूतर का नाश है ? तुम्हारा त्याग इसमें क्या करेगा ?" तब राजा हँसकर उत्तर देता है, "मेरा त्याग वह करेगा कि जिससे जीव नहीं मरेगा और हिसा नहीं होगी ? निर्गुण और भूखा रहना अच्छा, लेकिन प्राणियोंका घात नहीं करना चाहिए? क्या बाघको गुणीपात्र कहा जाता है, मुनि लोग अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते ।
पत्ता -- जिन लोगों के द्वारा अपने आगममें कहा गया और दिया गया आमिष भोजन खाया जाता है, वे भव भव में दुर्दर्शनीय दुःखोंको पाते हैं ॥१६॥
५. A तो । ६.
उज्जाविज्जइ । ७. प्राणिगणु; P पाणिगुणु ।
१७. १. A तो । २. AP पण्णकंति । ३. A सोम । ४ K प्रिय । ५. A कुलिस
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यह सुनकर देखोंने उसको प्रशंसा की और मेघरथको सिरसे प्रणाम किया । वह देव चला गया। राजाके अनुज ( दृढ़रथ ) ने कहा कि इसने मेरे हृदय में कुतूहल उत्पन्न कर दिया है। यह कौन है और किसलिए यहाँ आया ? तब शत्रुओं का दमन करनेवाला, राजा मेघरथ कहता है - तुमने (अनन्तवीर्य के रूपमें ) दमितारिके पैदल सैनिक हेमरथ राजाको मारा था । वह बहुत समय तक संसार में भ्रमण कर कैलासके तटपर पर्णकान्ता नदीके निकट वनमें श्रेष्ठ श्रीदत्ता कान्ता के वशीभूत तापस सोमशर्माका चन्द्र नामका प्राणप्रिय पुत्र हुआ। उसने पंचाग्नि तप किया, वह ज्योतिषकुल में देव उत्पन्न हुआ है। वह वहाँ गया जहाँ हाथ में वज्र लिये इन्द्र था, जो - ईशान स्वर्गका राजा था। वहां देवताओंको वचनगति और मेरे त्याग तथा भोगकी स्तुतिको