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________________ ४१८ महापुराण [ ६२. १६.४ता परिख भरि वारिया पई या भवतरि मारियड । कि भारहि वारहि अप्पण मा पावहि भघि दुई घणघणउँ । सा पुच्छइ दढरह देव किह महुँ कह हि कहाणार्ड वित्त जिह । पहु अक्खइ मंदरउत्तर खेतरि सोक्खणिरंतरह। पुरि पउमिणिखेडइ मंदगइ घेण सागरसेणहु अमियमइ। धणमित्तु तासु वाहु वणुउ पुणु जायड दिसेणु अणुउ। मु चणिवरि भायर जायरह अवरोप्परु पणिवि धणहु कइ । ते लुद्ध मुद्ध मुय थे वि जण जाया स्वग मारणदिण्णखण । घत्ता-इह मारह इहु णासह भीयउ रक्ख गधेसा॥ णहि एते हई विठ्ठल मगु जि सरणु पइटउ ॥१५॥ १० अण्णोणु जि मक्खिवि जणु जिया ण णिहालइ णिषडती णियइ । इहु ढीणु इहु णिरु मुक्त्रियठ इय चिंतिवि राध दवे कियउ । किं किजइ खगु दिजैइ जइ वि स लभइ धम्मलाहु तइ वि | सहि अवसरि कुंडलमजलधर अंबरयलि थिर भासद अमरु । ५ जइ देसि ॥ तो गिद्धहु पलट पलि दिण्णइ पारावयह खब। वह दुष्ट उसे झड़पकर जबतक ले और अपने शत्रुका मांस लोचकर खाये, तबतक राजाने उसे मना किया कि तुमने इसे जन्मान्तरमें मारा था, अब क्यों मारते हो अपनेको रोको, संसारमें सघन दुःखोंको मत प्राप्त करो। तब वह सिंहस्थ देव पूछता है कि जिस प्रकार मेरा कथानक है, उस प्रकार बताइए । राजा कहता है कि मन्दराचलके उत्तरमें सुखसे निरन्तर परिपूर्ण क्षेत्रान्तर (ऐरावत ) को पभिनीखेद नगरीमें सागरसेन वेश्य था ! उसकी पत्नी अमितगति थी। घनमित्र उसका प्रिय पुत्र था, फिर छोटा पुत्र नन्दिषेण हुआ। सेठको मृत्यु होनेपर जिनमें लड़ाई चल पड़ी है, ऐसे दोनों भाई धनके लिए एक दूसरेपर प्रहार करते हैं। वे दोनों लोभी और मूर्ख मृत्युको प्राप्त होते हैं । मारने में अपना समय देनेवाले वे पक्षी हुए। ___घत्ता-यह मारता है, यह भागता है, डरा हुआ रक्षाको खोज कर रहा है। आकाशमें जाते हुए इसने मुझे देखा और मेरी ही शरणमें आ गया ।।१५।। जन एक दूसरेका भक्षण कर जीवित रहता है, अपने ऊपर आती हुई नियतिको नहीं जानता । यह दोन है, यह अत्यन्त भूखा है-यह सोचकर राजा अत्यन्त भयभीत हो उठा । क्या किया जाय? यद्यपि यह खग दे दिया जाये तो भी इसमें धर्म लाभ नहीं पाया जा सकता। उस अवसरपर कुण्डल और मुकुट धारण किये हुए आकाशमें स्थित एक देवने कहा-"यदि नहीं ___४. P भवि मथि दुई घणउं । ५. P वणिसागर । ६. A पहरिवि । ७. P°दिण्णमण । १६. १. 4 एउ । २. K दुवक्कियज; P दुवक्वियन; T दुवक्खिय उ पक्षत्रयः। ३, A हिजइ। ४. AP सेकह।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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