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________________ महाकवि पुष्पवन्त विरचित २ रायमहारसि सुकवियारव जाइ जणि साधण्णी णिव सह गेद्दिणि भव्य सव्वसिरिणामें संजयंतु अणेक जयंत सारस मिणसरालवणंतरि ए दिणि दक्खवियरहंतहु धम्मु अहिंसा तु सुणेपिणु जयंतभासनिपु तेतिवि वेिषं लइय आमेलिषणियसुल लियजाया इय तव विहिहि णिति किर के बलु सो सुयणायाणाय विचारत । ras वइजयंतु तर्हि णिवसह । सुय उप्पण्णा सुपरिणामें । अणि जसलिय तिजेयत्तड । णासियसोय असोयवणंतरि । पयजुषं दिवि अरहंतहु । मुणिग्गथैवेपिशु । संत महि देषिणु । लिदिवि मोहलोहदुइ । पिड पुत्तय तिणि मि रिसि जाया aoda aurors afs केवलु । - घात आय देवहु फणिवरहि रूकु णिहालिवि हिययहरु || ज्झिाय लुद्ध जयंतु मुणि जइ फलु देसइ सुतबतक ||२| -५७. ३.३ ] तो मन् वि एहउँ लाएणडं एव नियाणणिचं घेणबंध मुख जयंतु संपत्त कालइ होज्जड भवि सोहग्गाइ जणु तिहिं सलाह सलु विखद्धट । जायद विसरिंदु पायालाइ | २ उसमें विकारोंसे मुक्त, राजाओं में प्रधान, शास्त्र तथा न्याय-अन्यायका विचार करनेवाला राजा वैजयन्त निवास करता है। जिस सतीने उसे जन्म दिया, वह धन्य है । उसकी भव्य सर्वश्री नामकी गृहिणी थी। शुभ परिणामसे उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए, संजयन्त और जयन्त, जो अपने अनाहत यशसे तीनों लोकोंको धवलित करनेवाले थे । एक दिन जिसमें सारस दम्पतिका शब्दरूपी जल है, ऐसे अशोक वनमें, अन्तरायका अन्त दिखानेवाले अरहन्तके, शोकको नष्ट करनेवाले पदयुगलकी वन्दना कर, अहिंसामय धर्मं सुनकर अपने हृदयको मुनिमार्ग में लगाकर, संजयन्तके यत्र वैजयन्तको बुलाकर उसे धरती देकर वे तीनों (पिता वैजयन्त, संजयन्त और जयन्त ) वैराग्यको प्राप्त हुए। मोह-लोभरूपी दुर्लताको काटनेके लिए अपनी सुन्दर परिनयाँ छोड़कर पिता और दोनों पुत्र तीनों ही मुनि हो गये। कितने लोग ऐसे हैं कि जो तपके द्वारा बलको प्राप्त होते हैं। वहीं पिताको केवलज्ञान प्राप्त हो गया । २.१.AP विजयं । २. A जिणमग्नि । ३. सुणेपिणु सुष्ठु नोवा । ५. A बहं । ० ३. १. AP २९३ घत्ता- वहाँ आये हुए देव, नागराजका सुन्दर रूप देखकर लोभी जयन्त मुनि अपने मनमें विचार करता है कि ( उसका ) सुतपरूपी वृक्ष यदि फल देता है - ॥२॥ ३ तो वह आगामी जन्ममें मेरा सौभाग्यसे व्याप्त ऐसा लावण्य हो। इस प्रकार निदानके बन्धनसे बँधा हुआ मनुष्य तीनों शल्योंसे विनाशको प्राप्त होता है। समय पूरा होनेपर जयन्त ४. AP दुरुलिय | १०
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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