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-६०. १४. १५ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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घमरचंचपुरवा रहराइच असणियोसु णामेण पराइउ । तेणासुररिउसुयसीमंतिणि दिट्ट सुतार हारभूसियथणि । मोहिल णावइ मोहणवैशिद परि विद्धन मयरद्धयमल्लिइ। मायाहरिणु तेण देवखालिब पइ सासामीबहु संचालिउ । रूवु धरिवि वरइसा केरस अन्झाहिय आणंदजणेर। अप्पणु म ति जारु तहि पत्तल अमुणं तिइ धरिणीइ पवुत्ते। देवमिंगाई धरंतु ण लजहि अब बिबालत्तणु परिवनाहि । कोलणु तुझु तासु भयभंगई कंपइ मरणविसंतुलु अंगई। तं णिमुणिवि पररमणे भासिर सुंदरि चारु चार एवएसि। हई परियड एण जि करुणें आउ जाहुं पुरवरु किं हरिणे । एम भणेवि चढाविय सुरहरि रेहा चंवरे जलहरि। णहि जसे दावि ससरीरखं मुद्धा तं जोइवि विवरेरठ। যুক্ত ঘাহ হ সাঃ সলিং करजुयलेण सीसु पइणंतिछ । पत्ता-पुणु परपुरिसु ण जोइन एण णाहु विकछोइउ ।।
सुधष्डि विहि विहडावइ एवहिं को मेलाबाइ ॥१४॥
अशनिघोष नामका रतिशोभित चमरचंचपुरका राजा आया। उसने हारसे भूषित स्तनबाली विद्याधरकी स्त्री सुताराको देखा। मोहिनोलताके समान उससे पह मोहित हो गया। हृदयमें वह कामदेवके मालेकी नोकसे वित हो गया। उसने मायावी हरिण दिखाया और पतिको सतोके पाससे हटा दिया तथा सुताराको आनन्द उत्पन्न करनेवाले वरका रूप बनाकर वह पार स्वयं वहां पहुंचा। नहीं जानती हुई पत्नी सुतारा बोली, "भूगोंको पकड़ते हुए आपको शर्म नहीं आती, तुम आज भी बचपनको छोड़ दो। तुम्हारा खेल होता है, उसका भयसे नाश होता है, मरणसे अस्तव्यस्त उसका शरीर कांपता है।" यह सुनकर परम रमण उसने कहा"हे सुन्दरी, सुमने सुन्दर उपदेश दिशा, इस करुणासे मैं सन्तुष्ट हुआ, माओ नगरवरको चलें, हरिणसे क्या?" यह कहकर उसने उसे सुरविमान में चढ़ा लिया। वह ऐसी शोभित हो रही थी मानो मेघमें चन्द्ररेखा हो। आकाशमें जाते हुए उसने अपना शरीर दिखाया। वह विपरीत रूप देखकर मुग्धाने दोनों हापोंसे सिर पीटकर हे स्वामी कहते हुए दहाड़ मारी।
घत्ता-उसने परपुरुषको नहीं देखा। इसने मेरे स्वामीका विछोह किया है। विधि सुघटितको अलग कर रहा है। इस समय कोन मिलाप कराता है ॥१४]
१४. १. A शिक्षालिस। २. AP परिणीह पर वृत्तः। ३. K भुगाई। ४. AP चंदलेह । ५. AP
पुरुसु ।