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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
- १७.५,११]
तुम्ह
बुद्धि विवरष्ट
ता मर्याहिं मुजिंदु कयरोसहि
कुह जइ मंतु महारउ । ता िवलहि दंडर्स हा सहि ।
साहु भीम उवसग्गु सप्पिणु गड तहिं हं गए पुणरवि पावक माणिक ताई मि जणु पहरणु किं धार स देवहिं भवभावणिसुंभह आर सो जयंत बरेजंगष्ट फुकाडावियण चंदे मानवणिवहु णिबद्धर णायि अबहिं तु द वियारहि चक्खयखग्र्गे मच्छरगाढ़ परिणयहिं सहूं थरहरिय
ता-थिरु सत्तु मितु समभावि थिउ सुझाणसंरुद्धमणु ॥ सो खबर " खवयसेहिहि षडिउ तिणु वि ण मण्ण निययतणु || ४ ||
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ति कलेवर णिबंधु मेल्लेष्पिणुं । मुणिवरील तिअगि को पावइ । सेनापति ण कोड़ें। जडु अणु अप्पाणखं मारइ । तहिं ठिकाणपुरपारंभइ । पेच्छिषि चिरबंधुहि पढियंग । रूपिणु खणि धरणिंदें । fefits णीससंतु कसचायहिं । अम्हई काई भडारा मारहि । एवं सog बिलसिवं तडिदाढें । ताणासंतु सत्तु सो धरियर |
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आया है | यदि तुम हमारी बात मानते हो तो दुर्मुख, दुष्टबुद्धि, विपरीत इसे मार डालो | तब क्रोध करते हुए मनुष्योंने उन मुनीन्द्रको पत्थरों और हजारों बण्टोंसे ताड़ित किया ।
सा- वह मुनि शत्रु-मित्रमें समभाव रखकर स्थित हो गये । शुक्लध्यान में उन्होंने अपना मन संरुद्ध कर लिया। उस क्षपणक ( मुनि) ने क्षपणक श्रेणीपर चढ़कर अपने शरीरको तिनकेके भी बराबर नहीं समझा ॥४॥
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वह महासाधु उपसर्गेको सहनकर, तीन शरीरके निबन्धनको छोड़कर वहाँ चले गये, जहाँ जीव फिर लौटकर नहीं आता। तीनों लोकोंमें मुनिवरकी लीलाको कौन पा सकता है ? शत्रुसमूहके द्वारा मारे जाते हुए भी जो कभी भी कोधके द्वारा अभिभूत नहीं होते ऐसे मुनियोंके ऊपर जन हथियार क्यों उठाता है ? वह मूर्ख अपनेसे अपनेको मारता है । वहाँ देवोंके साथ संसारके भावका नाश करनेवाली निर्वाणपूजा प्रारम्भ की गयी। वह जयन्त धरणेन्द्र भी व माया | अपने चिर शरीरको पड़ा हुआ देखकर, फूत्कारसे जिसने आकाशके चन्द्रमाको उड़ा दिया है, ऐसे धरणेन्द्रने एक क्षणमें क्रुद्ध होकर नागोंसे मानव समूहको बांध लिया और श्वास ऐसे हुए उन्हें कशाघातोंसे मार डाला। दूसरोंने कहा- हे धरणेन्द्र, विचार करिये। हे आवरणीय, आप हमें क्यों मारते हैं? जिसने तलवार उठा रखी है तथा जिसमें प्रगाढ़ मत्सर है, ऐसे विद्युष्ट्र ने यह सब चेष्टा की है।" लब परिजनों और स्वजनों के साथ थर-थर काँपते और भागते हुए शत्रुको उसने पकड़ लिया ।
७. PAAP थिउ । १०. AP खयगसे विहि ।
५. १ A मपि । २. AP जसो गड पुणु णाव । ३. A मोहें । ४. AP बम्यानं अप्पु ५, AP उरजंग | ६. A वणि हव ।