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महापुराण
[६१. १५.७अण्णहि दिणि गर गंदणगिरिदु थित पडिमाजोएं मुंणिवरिंदु । हयकंठमाइ णामें सुकंछु
संसार भमिवि दुक्खोहिददछु । जायर भीमासुरू सरिवि वेरु आढत्तु तेण मुणि मेरधीरु । अवसग्गहु ण चला कि पि जाम सई लज्जित गज रिद गयणु ताम | रिसि साहिवि आराण अमंदु अच्चुइ इंदह हूयद पडिदु । इह दीवंतरि सुरदि सिविदेहि मंगलवइदेसि विचितगेहि । पत्ता-पुरि रयणसंचि मणिचे घाइप थिर आचंचियारिपसरु ।।
राणउ खेमंकरु दीदकर धीमहंतु उद्धरियधर ॥१५।।
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तह कणयचित्त णामेण देथि दहि जण इंद पहिंद बे वि। जोया हियमाणिणिहिययसार वज्जाउह सहसासह कुमार | सिरिसेणहि सुख सहसाउद्देण जणियड णेहु व कुसुमालछेण । णियसंति णामु सुरणाहमाहिउ खेमकर प्रत्तपउत्तसहिउ। जांवच्छह ता दिवि वसत्यु पभणइ मुवि को सईसणस्थु ।
अण्णहिं वैषिणउ कुलिसाउहासु णिम्मर्दू सम्मत्तु गुणावयासु । दूसरे दिन वह नन्दनपर्यंत पर गया और वह मुनिवरेन्द्र प्रतिमायोगमें स्थित हो गया। अश्वग्रीवका भाई सुफण्ठ दाखसे आहत और संसारका परिभ्रमण कर भीम असरहा। पूर्वभवका स्मरण कर मेरुपर्वतके समान धीर उन मुनिसे उसने शत्रुता शुरू कर दी। परन्तु जब वह मुनि उपसर्ग अरा भी विचलित नहीं हुए तो वह यात्रु स्वयं लज्जित होकर आकाश में कहीं भी चला गया। मुनि मी अनन्त आराधनाको साषकर अच्युत स्वर्गमें इन्द्रका प्रतीन्द्र हुमा। इसी द्वीप (जम्बूढोप) की पूर्वदिशामें ग्रहोंसे विचित्र मंगलावती देश है।
पता-मणियोंसे शोभित रस्तसंचय नगरमें शत्रुओंके प्रसारको रोकनेवाला बुद्धिमें महान धरतीका उद्धार करनेवाला क्षेमकर नामका राजा था |॥१५॥
उसकी कमकचित्रा नामको देवी थो। उससे इन्द्र और प्रतीन्द्र दोनों मानिनियोंके हृदय सारका अपहरण करनेवाले वायुध और सहस्रायुष कुमार उत्पन्न हुए। सहस्रायुधको श्रोषेणसे इन्द्रसे पूषित कनकशान्त नामका पुत्र, वैसे ही हुआ जैसे कामदेवसे स्नेह उत्पन्न हुआ हो। इस प्रकार जब पुत्र और पौत्रों सहित क्षेमकर राजा रह रहा था, तब स्वर्गमें देवसमूह कहता है कि पृथ्वीपर सम्यकदर्शनमें कौन स्थित है ? दूसरे देवोंने कहा कि गुणोंसे युक्त वषायुधको निर्मल सम्यक्रव प्राप्त है। यह सुनकर चित्रचूल नामका सुरवर जिसके शिखर आकाशको चूम रहे हैं
Y. AP जयवरिंदु । ५. AP संसारि । ६. P दुक्खेहि दट्ट । १६. १. A वहि गंदणु अमचुवईयु ए पि । २. A reads this line and 3das; बजाउहणा तिजय
सार, तें परिणिय सिरिमाणं कुमार, वीए जणियर सहसाउह कुमाह। ३. AP को भुवि । ४. । भणि । ५. A णिम्मले।