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संधि ६६
एत्तरी गिरिमाशिवाजविहा सुंदर !!
लक्खणर्चेचइट इणिवडिउ णाइ पुरंदर ।। ध्रुवकं ॥ करताजियवरफुणिफेणकडप्पु उहालियषणमायंगप्पु । लीलाइ धरियकेसरिकिसोर तरकीलिरकिणरिचितचोक। दियसिहि वहिट गं बालयंदु णं सो णिवर्षसहु तणख फंदु । सतुहि छिदंतहु अमरसेण । स्वरिउ कहि मि जो विहिवसेण । णं सहसबाहुकुलजणिहाल
णं परसुरामसिरकुंलिसघाउ ।
सन्धि ६६
यहाँ गहनवनमें तपस्वी शाण्डिल्य के घर यह सुन्दर इस प्रकार बढ़ने लगा जैसे लक्षणोंसे शोभित आकाशसे पतित इन्द्र हो ।
जिसने महानागोंके फनसमूहको अपने करतलसे ताड़ित किया है, जिसने वनगजोंके दर्पको उखाड़ दिया है, जिसने खेल-खेल में किशोरसिंहोंको पकड़ लिया है, जो वृक्षोंपर कोड़ा करती हुई किन्नरियोंके चित्तका चुरानेवाला है, ऐसा वह कुमार कुछ ही दिनोंमें इस प्रकार बढ़ने लगा, मानो बालचन्द्र हो, मानो वह राजवंशका मूल हो। देवसेनाको नष्ट करते हुए शत्रुसे जो भाग्यके वशसे किसी प्रकार बच गया हो, जो मानो सहस्रबाहुके कुलका यशसमूह हो, मानो परशुरामके सिरपर
All Mss. have, at the beginning of this apdhi, the following stanza:
यस्येइ कुन्दामलचन्द्ररोपिम्समानकीतिः ककुभां मुखानि । प्रसाधयन्ती ननु बम्नमोति जयस्वसी धोभरसो नितान्तम् ॥ १॥ पोयुषसूतिकिरणा हरहासहारकुम्दप्रसूमसुरतीरिणिशक्रनागाः। सोरोद शेष बल याहि निई स चैव
कि खणकापधवला भरतः स्प यूयम् ॥ २ ॥ A reads in the third line: बलयासिति हंस चैव; Preads दलससम हंस चैव; AP reards in the fourth line मरतस्तु यूयम् । K has a gloss : या हिरवं गच्छ; निहंस निसरी हंस
स्वरि गच्छ । युमं कि मरतः अतिशया सण्डकाव्यवत् पवला बर्तध्ये, अपि तु न । तहि गामस्तु । १. १.AP हि णिवरित । २. P फणिफर। ३. P सहालिय । ४. A कि कोकिरकिणर । ५. P
omital | ६. AP सिरि कुलिस ।