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________________ ९६ १० १० तो तहिं पतु सयं सयमण्णु दु एक्कु जिवि पंच जि देहि महापुराण राहिब दीडरपासणिरुधु समुपणकुंभु जगविलग्गु तओ परिचितिषं दिव्वेणिवेण ण विंझसरीजलकील मणोज्ज कंटल मिड ण कोमलवेणु करेणुरई करता थ घट्टणु फणिरोह एक्कु इहिदु मए इह उत्त ण णिमाइ जग्गाइ किं पिण मूदु अहं पिहु मोहि किं परु मोक्खु दिणा सिरु जाणिव पेच्छमि लोड अलारर्थ खजु सुंदर प्रति कुमार निवेसिक रजि पसवणु । पुणो वि सिसुत्तरसंख गणेहि । [ ४२.७.२९ घता - इय पुण्वकालु पुहईसरहु गड सुहुं सिरि माणं । aurfers ता किंकरेणरिण कर मतलिखि पणवेवि तहु ||७|| 4 करीसर वारिणिबंधणि बंधु' । धराहिव जाणषिं तुम्हहुं जोग्गु । भगिय केवलणाणसिवेण | ण सल्लपल्लव भोज ण सेब्ज । ण मग्गविलग्गिर बालक रेणु । सफासवसेण विडं बिउ इत्थि । सहेश् वरा बिभियमोहु । अहो जणु टुक्कियदे णि खुत्त सिरिमयदिपव्वसु दु । दुमा चम्मविणिम्मि रुक्खु । विरप्पैम तो दिण भुंजमि भोउ । इच्छमि वच्छमि गंपि वर्णति । I होनेपर, तब फिर वहाँ इन्द्र स्वयं आया और प्रसन्न कुमारको राज्य में प्रतिष्ठित किया। फिर दो और एकके ऊपर पांच बिन्दु दो और तब शेशव के बादको संख्या गिनो । पत्ता- इतने वर्ष पूर्व ( इक्कीस लाख पूर्व वर्ष ) वर्ष लक्ष्मीका सुख मानते हुए राजाके निकल गये तो अनुचर मनुष्यने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए राजासे निवेदन किया ||७|| ८ हे नराधिप, जो लम्बे पाशसे निरुद्ध था, हाथियोंके आलान में बँधा हुआ था और जिसका कुम्भस्थल समुन्नत था, ऐसा वह महागज आकाशके अग्रभागसे जा लगा है ( मर गया है) । अब तुम्हारे योग्य बातको मैं जानता हूँ। तब जिसने केवलज्ञान और शिवकी याचना की है, ऐसे दिव्य राजाने विचार किया - "विन्ध्या नदी (नर्मदा ) को जल-कोड़ा सुन्दर नहीं है, शल्यको लता के पल्लवों का भोजन और सेज भी ठीक नहीं है, न कन्दल मोठे हैं और न कोमल वेणु। न मार्गमें लगी हुईं बाल करेणु अच्छी है, अब उसमें हथिनीका प्रेम और मूंडसे प्रताड़न नहीं है। स्पर्शके वशीभूत होकर हाथो विडम्बनामें पड़ गया है। बढ़ रहा है मोह जिसका, ऐसा यह बेचारा गज दृढ़ अंकुशोंका संघर्षण एवं स्पर्शका निरोष सहन करता है, मैं यह कहता हूँ कि अकेला गजेन्द्र नहीं, आश्चर्यं है लोग भी पापों की कीचड़ में फँसे हुए हैं। मूर्खजन न निकलता है और न थोड़ा भी जागता है। मूर्ख लक्ष्भोके मद और निद्रा के वशीभूत है। अरे में भी तो मोहित है, श्रेष्ठ मोक्ष क्या ? खोटा मनुष्य चर्मसे निर्मित और रखा है। लोकको विनश्वर जानता हूँ और देखता हूँ। तो भी विरक्त नहीं होता, और भोग भोगता हूँ। राज्य मशाश्वत है और अन्तमें सुन्दर नहीं होता। मैं इसे नहीं चाहता । वनमें जाकर रहता हूँ।" ७. P पंच जिव ८. P यारि ९. A परिणा । ८. १. AP | २. A दिवु । ३. A पासणिरोह । ४ A P वृढुं । ५. विश्पथि ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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