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-६१. २. १९]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
अमरगुरुदेवगुरु णामोण सावसरु ।
साहूण पासम्मि। तहिं अमियतेएण सिरिविजयराएण । णियतायजम्माई वणहरणकम्माई। सिलखंभदलणाई दाइजमलणाई। सवधरणकरणाई सणियाणमरणाई। सुरलोयवासाई गरभवविलासाइं। पजिवक्खमहणाई हरिगीवणिहणाई। सिरिमारिभगाई करणरचगमणाई। जर्सेकतिफुरणाई असुरारिरियाई। रिसिणाहकहियाई सोऊण गहियाई । वोहि पि सुवयाई अमयाई सुदयाई । सिरिविजउ तण्हंतु मणि महा कण्हंतु | पुणु फालमाणेण परिवद्रमाणेण | विउलमइ विमलमइ गमिऊण परमजइ । णाऊण मासाउ मोत्तण मासाउ। रवितेय सिरियत्त राईवदलणेत्त। णियणियतणुब्भूय कंदप्पसमय । दोण्हं पि हविऊण फुलमगि थविऊण ।
किसी एक दिन अवसर पाकर अमरगुरु और देवगुरु नामके मुनियों के मोहपाशका नाश करनेवाले सामीप्यमें उन अमिततेज और श्रीविजयने अपने पिताके जन्मों, वनहरण कर्मों (शिलाखम्भको चूर्ण करना, शत्रुओंका मानमर्दन करना, तपश्चरण करना, निदानपूर्वक मरना, सुरलोकमें निवास करना, मनुष्यभवके विलास, प्रतिपक्षोंका मधन, अश्वग्रीवका निधन, श्रीरमपीसे रमण, नरकके लिए गमन करना, यश और कान्तिका स्फुरण, असुर शत्रुके चरित ) मुनिनाथके द्वारा कथनको सुनकर सुनतों और अमित दयाओंको प्रहण कर लिया। तुष्णासे आकुल श्रीविजय मनमें कृष्णत्व (नगरायणत्व) को महत्त्व देता है। विमलमति और विपुलमति परममुनियों को नमस्कार कर, मनो आयु एक माहको जानकर, लक्षमीका आस्वाद (भोग) छोड़कर, कमलदलके नेत्रोंवाले रयितेज और श्रीदत्त नामक अपने कामदेवके समान अपने अपने पुत्रोंका अभिषेक कर, २. १. A दिग्वगुरु । २. A पामेण । ३. P adds after this: अकितिपुरियाइ, असुरारिरियाइ,
which in our text is line 10 below । ४. A जकित्तिफुरियाई । ५. A सबयाई A adds after this: भवभावलमियाई: Kalso writes it but scores it off. ६. A परिवठमाणेण; P परिषड्नमाणेण ! ७. AP पविऊण । ८.AP दोहि पि । ९. A गायिऊण ।