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महाकषि पुष्पदन्त विरचित
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ता तणुरुइरंजियछणससीहि संबोहिउ दिव्यमहारिसीहि । पहवणाइ पोमासंगमेहि कहाणु कय सुरपुंगमेहिं । अप्पिवि अणंत विजयहु सधामु णीसेसु रेज्जु धणु साहिरामु । भहरज्जुणिकिकिणिर्लबमाणु आरूढउ सायरदेस जाणु। छट्टेण जेट्टमासतरालि
बारसिधासरि णित्तारवालि । वरुणासा(लिइ खरंसुजालि उजाणि सहेजइ घणतमालि । पहु पंचमुहि सिरि लोउ देवि सहसेण णिवह सहुँ दिक्ख लेवि । बीयइ दिणि दिणयरफरफुरति हिंडतु देउ उज्झाररति । राए विसाहभूर आशु
जनक निपारिक महीमहंतु। दिण्णउ त तहु आहारवाणु पंचविहु वियंभिउ चोजठाणु। घत्ता-णियमत्थहु दसदिसिवत्थह खरतवचरणसमत्थहु ॥
दुइ अद्दई दुरियविमइई गयई तासु छम्मत्थहु ॥१०॥
मासम्मि पहिला महुपमत्ति पुग्विलाइ धणि आसत्थमूलि संभूय लोयालोयगामि आश्य बत्तीस वि सुरवरिंद
णिचंदइ दिणि मासंतपत्ति। पंचमउ गाणु ह्यघाइमूलि । थिउ अमहावत्थ हि भुवणसामि । गह तारा रिक्ख खरंसु चंद ।
तब जिन्होंने अपने शरीरको कान्तियोंसे पूर्णचन्द्रको रंजित किया है ऐसे दिव्य-महाऋषियों ( लौकान्तिक देषों ) ने उन्हें सम्बोधित किया। लक्ष्मी सहित देवश्रेष्ठोंने अभिषेक कर दीक्षा कल्याणक किया। अनन्तविजयके लिए अपना घर, समस्त राज्य और सुन्दर घन देकर, मधुर ध्वनिवाली किकिणियोंसे शोभित सागरदत्ता नामकी शिविकामें चढ़कर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशीके दिन ( जबकि चन्द्रमा उदित नहीं हुआ था), सूर्यके पश्चिम दिशामें कलनेपर, सहेतुक उपवनमें पांच मुट्टियोंसे केश लौंच कर एक हजार राजाओंके साथ स्वामीने दोसा ले लो। दिनकरकी किरणों से चमकते हुए दूसरे दिन अयोध्या नगरीमें विहार करते हुए धरतीमें पूज्य अनन्तनाथको राजा विशाखभूतिने जयजयकार कर रोक लिया। उसने उन्हें आहार दान दिया। वहाँ पांच आश्चर्यके स्थान हुए।
पत्ता-नियमोंमें स्थित दिगम्बर तीनतर तप करने में समर्थ और छमस्थ उनके पापोंको नाश करनेवाले उनके दो वर्ष बीत गये ॥१०॥
मधुसे प्रमद चेत्रकृष्ण अमावस्याके ( चन्द्रविहीन ) दिन पूर्वोक्त वन ( सहेतुफवन ) में अश्वस्थ वृक्षके नीचे चार घातिया कोका नाश करनेपर उन्हें पांचवा ज्ञान उत्पन्न हुआ। वह लोकालोकको देखनेवाले हो गये तथा भुवनस्वामी अर्हत्-अवस्थामें स्थित हो गये । बत्तीसों १०. १. AP देसु । २. A धणसाहिराम । ३. AP सायरपतु । ४. AP °फुसिह । ५. A विसाइभूई;
P वसाहभूए । ६. A तं तह । ७. AP चोज्जु ।