________________
महापुराण
[३८. १. १४जो भयवतो जो भय वंसो। जमकरणहूं लगारगम अण्णाणमहं
सण्णाणमहं। णिहारहियं णिहारहिये । अवसाषसणं
आसावसणं । आसासमणं
आसासमणं। घररमणीसं
वररमणीसं। णीसंसाल
णीसंसालं। परसमयंत
परसमयंत। अहिवंदिययं सुहमिदिययं । जेणे ण फहियं तेलोकहियं ।
णिरुवमदेह तं वंदे है। घना-पुणु पणविवि पंच वि परमगुरु णियजसु विजगि पयासे चि ।।
घणदुरियपडलणिपणासयस अजियहु चरिख समास वि ॥१||
मणि जायण कि पि अमणोजें कइयदियहई केण चि कों। गिठिवण्णेउ थिच जाम महाकइ ता सिविणंतरि पत्त सरासइ । भणइ भडारी सुहयाओहं
पणमह अरुई, सुहर्यरमेह । दाले स्वामी हैं. जो ज्ञानवान् और सात भयोंका नाश करनेवाले हैं, जो रोगादिका विनाश करनेवाले यमों और व्रतोंका अनुष्ठान करनेवाले हैं, जो अज्ञानका नाश करनेवाले ज्ञानको धारण करते हैं, जो निद्रा और कलत्रसे रहित हैं, जो शापसे शन्य और दिशारूपी वस्त्रोंको धारण करते हैं, जो सब ओर त्रैलोक्यरूपी लक्ष्मीसे विलसित हैं, जो आशाके शामक और मुक्तिरूपो रमणोके ईश हैं, जिनको बुद्धि बर देनेवाली है, जो मनुष्योंको प्रशंसासे युक्त है, जो संसारका परित्याग कर चुके हैं, जो पर सिद्धान्तोंका अन्त करनेवाले हैं, जो श्रेष्ठ शान्ति से रमणीय, और नागराजके द्वारा अभिनन्दनीय हैं, जिन्होंने इन्द्रियजन्य सुखको सुख नहीं माना, तथा जो अनुपम और अशरीरी हैं, ऐसे अजितनाथकी मैं वन्दना करता हूँ।
पत्ता-पांचों परमगुरुओं ( पांच परमेष्ठियों) को प्रणाम कर तथा अपने राशको तोनों लोकों में प्रकाशित कर धन पाप पटल के नाशक श्री अजितनाथके चरितका संक्षेपमें कथन करता हूँ।
कई दिनों तक किसी कारण, मन में कुल असुन्दर बात हो जानेसे जब कवि उदासीन था तो उसे सपने में सरस्वती प्राप्त हुई। आदरणीया वह कहती हैं-"संसारके रोगसमूहका नाश करनेवाले तथा पुण्यरूपो वृक्षके मेध श्री अरहन्तको तुम नमस्कार करो।"
३.A जिंदारहि । ४. Pण । ५. AP पयासमि । ६, AP समामि । २. १. A कइवयदियह: P aयद दियह । २. K णिविणार यिउ but gloss निविणः; P णियिण
उदिन । ३. A पणमह वह । ४. A गइयर मेहं but gloss in K शुभतरुमेघम ।