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________________ २६४ ་ ५ महापुराण पहणरुवखराइस छष्ण उं लंबललंतचिंधकोमलदलु करिगिरिवर लोहियजलणिज्झरु सुहसंग डिपिएहसुंगड दूय राजइ मग्गइ कुंजरू विसीह सरकलहं इहु वारणु वहु जीविवारगु विका मिणिवडज किखरवण्णवं । चलचामरहंसावलिअ बिरलु । उग्गयचित्तछेत्तइंदीवर । तो गयणविलग्गतसस्थलु । पइसउ सो समरवणंतरु | तहिं उ चुकाइ कविक्खहूं । भयगार वण्डलवियारणु । महुं एहउ मणि भावइ ॥ हरि वारयसरह कमि पडित अचल चलंतु ण जीवइ ||११|| १२ धत्ता -- तं णिसुणिवि दूएं जंपियें [ ५४.११.४ दुवई - जासु तसं ति ऐति पणवंति थुणंति वि देवदानवा || लसुण गणु किं पितुम्हारिस विबल वरायमाणवा ॥ तो कण्हें जंपि पेसुणडं जाहि दूध मा जंपहि सुण्णरं । तं सुणिवि दूध णिगड गड कहइ ससामिहिं जब अप्पर गड | बिधि र कर तंत्रच्छिहिं करवालु णिरिक्खड़ | सेवण करइ सो पई मण्ण णियसंमुई सिरिस्इि सण्णइ । भण भय से वसि होस मि चा देति करि वरु ढोएसभि " बलभद्र उस अवसरपर कहते हैं, "हे दूत, जो प्रहरणरूपो वृक्षराजियोंसे माच्छन्न है, नृपकामिनियोंरूपी वट-यक्षिणियों से सुन्दर है, जिसपर लम्बे और हिलते हुए ध्वजरूपी कोमल पत्ते हैं, जिसपर अविरल चलचामरोंकी हंसावली रहती है, जिसमें रक्तरूपी जलका निर्झर है, उठे हुए विचित्र छत्ररूपी कमल हैं; जो सुमोको प्रतिरूपी साँपों से बीभत्स है, जिसका सुन्दर वंशस्थल आकाशको छूता है, ऐसे हाथीको यदि हे दूत, वह राजा मांगता है तो उसे तुम समरपी मतान्तरमें भेज दो। क्रुद्ध विपृष्टरूपी सिंहके तीररूपी शत्रुओंको लुप्त करनेवाले बाणों से वह नहीं चूकेगा। यह चारण (गज ) उसके जीवनका वारण करनेवाला है, भयकारक और वक्षस्थलका निवारण करनेवाला है ।" यत्ता - यह सुनकर दूतने कहा, "मेरे मन में यह आता है कि नारायण, तारकरूपी श्वापदके चरणोंमें पड़ा हुआ, अचल, चलता हुआ जीवित नहीं रहेंगा" || ११ || १२ देव और दानव जिससे त्रस्त होते हैं, आते हैं, प्रणाम करते हैं और स्तुति करते हैं, उसको कोई भी नहीं पकड़ सकता। तुम जैसे बलहीन बेचारे मानवोंकी क्या ?" यह सुनकर नारायणने कठोर बात कही कि "है दूत, व्यर्थ बकवास मत करो, तुम जाओ।" यह सुनकर दूत निकलकर चला गया। उसने अपने स्वामीसे कहा कि वह अपना हाथी नहीं देता। दुष्ट और कोठ द्विपृष्ठ की आकांक्षा रखता है, अपनी लाल-लाल आँखोंसे तलवारको देखता है, न वह तुम्हारी सेवा करता है और न तुम्हें मानता है; अपने सामने श्रीरूपी पुंश्चलीका सम्मान करता है, मदके वशमें २. ३ AP लक्कु । ४, P जंपितं । १२. १. तो । २. AP दूच गउ णिग्गव । ६. A छ ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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