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- ६४.९.२]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
वणि विलिसउक्खणील दिन तम्मि चेय विच्छुलियपंकि मैड लण्ड लवि छट्ठोववासु संसार सण किंपि बहु ates दिणि दिrयरकपप दाँसि गयचरि दाबि आहारु चारु अमरहिं वह्निय मंदारयाई सोरिस त froषु चरिषि दिवखावणि पत्ति इति मासि कयखट्टे तिलयतला सिएण अप्पेणपाणसं सुणिवं तेण पेरिजाणिडं दिजगु अनंतु गयणु
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८. १. AP
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णियजम्ममास पक्वं वरालि । कित्तियणक्खत्तासि समं किं । तें हुं पश्यसिहासु । जय णाणु जिणेण लद्ध | परिभ्रमण परवासवासि थि धम्ममित्तघरि इयबियाह । विहियई पंच वि अच्छेरयाई । भवभामिरु बुकियभाष हरिबि । दिति दिणि सुहणिवासि । वणि खोणकाएं जससिएण । उग्गमिणा केवलेण । जायत ओइजिणु अचलणयणु ।
घसा--दिनवंबर दिव्षाहरणई सुर णमंत चढपासहि ॥ पुणु वि पुरंदरु अवरित णाणाज्ञाणसासहिं ॥ ८ ॥
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थिओ समवसरण या विससरणि । जिणो विधियकरुणो इयावरणमरणो ।
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सहेतुक वृक्षोंसे हरे विशाल वन में अपने जन्मके अन्तराल और दिनमें ( अर्थात् वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन ) चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्र में स्थित होनेपर छठा उपवास करते हुए उन्होंने व्रत ग्रहण कर लिया। उनके साथ एक हजार लोग और प्रव्रजित हुए। उन्होंने संसारके प्रति कुछ भी स्नेह नहीं रखा, जिननाथने मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया। दूसरे दिन, दिनकर द्वारा जिसमें प्रकाश किया गया है, ऐसे हस्तिनापुर में स्वामी घर-घर परिभ्रमण करते हैं। हतविकार वह धर्ममित्र के घर ठहर गये। वहां उन्हें सुन्दर बाहार दिया गया। देवोंने मन्दारपुष्प बरसाये और पाँच आश्चर्य प्रकट किये। सोलह वर्ष तक तीव्र तपका आधरण कर संसारमें परिभ्रमण करानेवाले पापभावको नष्ट कर वह शुभ विश्वास दीक्षा वनमें पहुँचे । चैत्रमाह के शुक्ल पक्षको तृतीयाके दिन तिलक वृक्षके नीचे स्थित यशसे श्वेत छठा उपवास करनेवाले क्षीणकषाय उन्होंने आत्मासे आरमाका ध्यान किया । उत्पन्न हुए केवलज्ञानसे उन्होंने त्रिलोक और अनन्त आकाश जान लिया । अचल नेत्र जिन ज्योति सहित हो गये ।
पत्ता - दिव्य वस्त्र और दिव्य आभरण धारण करनेवाले देव चारों बोरसे उन्हें प्रणाम करते हैं। फिर भी अपने नाना यानोंसे पुरन्दर वहाँ आया ॥ ८॥
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सदैव विद्वानोंके लिए शरणस्वरूप समवसरण में वह स्थित हो गये। करुणा करनेवाले,
मूलि । २. A विलियं । ३ AP वस । ४. A नृवसहासु । ५. P पर जाणिव ।