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समुद्धरइ समयं मुसाषयणमुइयं जणं करइ विमयं
मलं महइ कसणं फणी सुरणिमवर्ण लं खलइ कविलं
तणियि महिल बला विहियेपुरं मुणि कणवरणं खणाभाव विगयं
महापुराण
अर्थ अमरतरुणीपरं रिसहचरियं जिणा किमवि गहिये सोड र
चालीस तिणि सहसाई होति एत्तिय सिक्खु सिक्खाविणीय
या हरइ कुमयं । पसूहणणरूयं । पहे थवर दुभयं । घणं दमइ दसणं ।
फुबं कहइ भुषणं । हरं हसणमुहलं । महीधरणबलं । हरि भगइ ण वरं । तं तिमिरहरणं । पत्तियह सुगयं । रथं पणमइण गुणी | महोपसमरियं । मणे अहब महिये । ण णरयविवरि ।
धत्ता-पंचतीस गणहर जिगहू जाया हयरेयसंग ॥ भयसाई दिव्वहरिसिंहि मणमणिय पुरुषं गहूं ॥ ९ ॥
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सहं अद्धसएं सब तर्हि णति । गुरुभत्तिवंत संसारभीय ।
[ ६४.९.३
मरणके आवरणको नष्ट करनेवाले वह जिन जिनशासनका उद्धार करते हैं, नयोंसे कुमतका हरण करते हैं। असत्य भाषणसे मुदित होनेवाले, पशुहत्या में रुचि रखनेवाले उनको वह मंद रहित करते हैं, दुर्मदको पथमें लाते हैं, पाप और मलका नाश करते हैं, सघन दुःखोंका दमन करते हैं, नागेश्वर और नृपभवनवाले विश्वका स्पष्ट कथन करते हैं। चंचल कपिल मतको और हंसीसे मुखर हरको स्वलित करते हैं। शरीरपर महिलाको धारण करनेवाले धरतीको धारण करने में समर्थ, बलपूर्वक द्वारिकाका निर्माण करनेवाले हरिको जो वर नहीं कहते, जो अक्षपाद मुनि हैं, वह अन्धकारका नाश करनेवाले नहीं हैं, जो क्षणिकवादको माननेवाले हैं ऐसे उन सुगतका विश्वास मत करो। ब्रह्मा देवस्त्रीमें रत है, उसे गुणी नमस्कार नहीं करते। केवल महान्
से भरित ऋषभचरितको जिसने स्वीकार किया है, अथवा मनमें उसकी पूजा की है, वह नर गम्भीर नरकविवर में नहीं पड़ता ।
पत्ता - जिनवर के पैंतीस गणधर थे। पापसंग्रहको नष्ट करनेवाले और अपने मनमें पूर्वांगों को माननेवाले दिव्य ऋषि सात सौ थे ||९|
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तैंतालीस हजार एक सौ पचास इतने महान् भक्ति से पूर्ण, संसारसे पीत और शिक्षा में
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९. १ K सुरभवणं । २ विहियपरं । ३ A महापस । ४. Pomits ण । ५. AP मरहसंग । ६. AP मणिमणिय ।
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