SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७५ महापुराण [४९.४.१ मंदरधीरु वीर दिहिपरियर इस्थिअस्थाणवणकरतरु । ण भणइ ण सुणइ णिप्पिहुँ गोरस एयारहवरंगसिरिधारस। कोहु लोहु माणु षि मुसुमूरह मायाभावु होंतु संचूर।। चक्खुसोत्तरसफासणघाणई जिणइ हणइ दुफियसंतागई। विहुणिवि षिष णिई सहे पणएं अप्प भूसह रिसि रिसिविण । ण सरह पुष्बकालेरइकीलणु ण करइ देतपतिएक्खालणु । णहरखंडणु सरूवरिपुंछणु करयलवट्टि सरीरणियच्छणु । इसण भसण भूभंगृ ससंसणु पाणिणंट परगुणविद्धसणु । साहिलासु सवियार दसणु णियडणिसण्णहरिणसंफंसणु । क्लरलोडि तणुमोहि ण इकछइ परमसाहु लिहियेष्ठ इव अफछ। पत्ता-बंधिवि तित्थयरत्त वहिं दसग सुद्धिा तोडिवि भंति ।। अच्चुइ पुप्फुत्तरणिला जायउ सुरवरु ससहर कति ॥४|| आउ दुवीससमुपमाणई कोले गिलियई दुकामाई। तहु छम्मासु परिहिउ जइयहुं ___ अकालाइ जपरवाहु सुरवइ तइयई । जबुदीवि भरहि सोहर গৗগাথ। धैर्य ही जिनका परिग्रह है ऐसी मैदराचलके समान धीर वीर निस्पृह एवं निष्पाप पह, सो भोजन नप और चौर्य कथाको न सुनते हैं और न कहते हैं, ग्यारह श्रेष्ठ श्रुतांगों की शोभाको पारण करनेवाले वह, कोष लोभ और मानको भी नष्ट कर देते हैं, पर श्रोत्र जिह्वा स्पर्श और प्राण इन्द्रियोंको जीत लेते हैं, और पापकी शृंखलाको नष्ट कर देते हैं। प्रणय के साथ, वह निद्राको भी नष्ट कर देते हैं, और वह मुनि ऋषिकी विनयसे स्वयंको विभूषित करते हैं, वह पूर्वकालकी रतिक्रीडाको याद नहीं करते, और न दन्तक्तिका प्रक्षालन करते है, नखका खण्डन, अपने स्वरूपका मार्जन, करतल रूपी वर्तिकासे शरीरको देखना, हंसना बोलना, भ्रूभंग : मा श्वास लेना, हाथ हिलाना, परगुणोंका नाश करना, अभिलाषापूर्वक और विकार साथ देखना, निकट वैठे हरिणोंका स्पर्श करमा, नख छोटे करना, शरीर मोड़ना, वह नहीं चाहते । परम साधु चित्रलिखितकी तरह, स्थित रहते हैं। घता-वहीं, दर्शन विशुद्धिसे भ्रान्तिको नष्ट कर और तीर्थकर प्रकृतिका बंधकर, अचयत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें वह चन्द्रमाकी कान्तिवाले देव हो गये ॥४॥ उसकी आयु बाईस सागर पर्यन्त थी। समयके साथ नए होने पर उसका भी अन्त | पहुंचा। जब उसके छह माह शेष रह गये, तव इन्द्र कुवेरसे कहता है, 'जम्बूद्वोपके भरतक्षेत्रों ४. १. A इथितिणिय' and gloss अस्ति भोज्य; ? हत्यिसपणिय । २. A Pणिप्रि । ३. AP मोह। ४, P णिहें। ५. A वकालि । ६. P रिपेच्छणु । ७. पाणिगइ। ८. पिणहं हरिणहं फसणु; P"णिसणहं णवि संघमण । ९. P लिहित हव । ५.१. AP'समाणई । ३. A कालि ।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy