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-३८. ६.३]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
जइ वि तो वि जिणगुणगणु वाणेवि किह पइं अन्मथिउ अवगण वि । चायभोयभोउगमसत्तिई पई अणवरयरइयकश्मेत्ति। राउ सालवाहणु वि विसेसिख पई णियजसु मुवणयलि पयासि । कालिंदासु जे खंधे णीयउ तहु सिरिहरिसहु तुहुँ जगि वीयप । तुहुं फरकामघेणु कइवच्छलु तुहूं कइकप्परक्खु ढोइयफलु। तुहूं कइसुरषरकीलागिरिवर तुहूं कइरायहंसमाणससरु । मंदु मयालसु मयणुम्मत्तष । लोउ असेसु चि तिहाइ मुत्त । केण वि कन्यपिसाट मेषणउ केण वि थंद्ध भणिवि अवगण्णि । णिश्वमेव सम्भाउ परजिउ पई पुणु विण फरिवि हड रंजित । घता-धणु र्तणु समु मझु ण तं गहणु णेहु णिकारिमु इच्छेवि !!
देवीसुय सुहणिहि तेण हउं णिलइ तुहार अच्छवि ॥५॥
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महसमयागमि जायहि ललियहि बोझ कोइल अंबयकलियहि । काणणि चंचरीउ रुगुरुंटइ ___ कीरु किं ण हरिसेण विसट्टइ। मज्झु कान्तणु जिणपयतिहि पसरइ गाउ णियजीवियवित्तिहि ।
यद्यपि, तब भी जिनवरक गुणोंको मन करता हूँ। तुमने अभ्यर्थना की है किस प्रकार उपेक्षा करू ? तुमने त्याग भोगकी उद्दाम ( उद्गम ) शक्ति, और निरन्तर की गयी कविकी मित्रता द्वारा, राजा शालिवाहनसे भी विशेषता प्राप्त की है। तुमने अपना यश भुवनतल पर प्रकाशित किया है, जिसने कालिदासको अपने कन्धे पर बैठाया है उस श्रोहर्षसे तुम जगमें द्वितीय हो, तुम कवियोंके लिए कामधेनु और कवि वत्सल हो, तुम कवियों के लिए फल उपहारमें देनेवाले कल्पवृक्ष हो । तुम कवियों के लिए ( कपियोंके लिए), देवोंके क्रीड़ा- पर्वत ( सुमेरु पर्वत ) हो । तुम कविराज रूपी हंसके लिए मानसरोवर हो । लोग, मन्द मदालस, कामसे उन्मत्त और तृष्णासे भुक्त हैं। किसीके द्वारा कामपण्डित माना गया, और किसीके द्वारा मूर्ख कहकर मेरी अवहेलना की गयी। लेकिन तुमने हमेशा सद्भावका प्रयोग किया और विनय करके मुझे प्रसन्न रखा।
पत्ता-धन मेरे लिए तिनकेके समान है, मैं उसे नहीं लेता। मैं अकारण स्नेहका भूखा हूँ। हे देवीपुत्र शुभनिधि भरत, इसीलिए मैं तुम्हारे घरमें रहता हूँ ॥५॥
वसन्तका समय आने पर सुन्दर हुई आम्रमजरी पर कोयल बोलती है, काननमें भ्रमर रुनझुन करता है, फिर तोता हर्षसे विशिष्ट क्यों नहीं होता, मेरा कवित्व जिनवरके चरणोंकी भक्तिसे प्रसरित होता है,अपनी आजीविकाकी वृत्तिसे नहीं।
५. १. P जय वि । २. A बणम्मि; P वणमि । ३. AP अवगण्णामि । ४. AP सालिवाहणु। ५. APr
मण्णिउ। ६. A मंदु; यहनु; T बंठ जहः । ७. AP सम्भाव । ८. A तिण । ९. AP इमछमि । १०. AP मछमि।