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-५२. २८. १७ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित सिरिविजयदु बंधिवि रायपट्ट दणु रायसहासहिं सहु पयट्ट। गुरु करिवि महारिसि कणय कुंमु ता चिष्ण सीरिं रईणिसुंमु । घत्ता-ना मोक्खहु विजउ जिणधम्मधर सेएं भरष्ट्र भडारच ॥
सोसियमोहरसु सुवर्णतजसु पुप्फयंतसरवारउ ॥२८॥
हय महापुराणे सिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महामस्वमरहाणुमजिए महाकपुष्फयंतषिराए महाकम्वे विजयतिक्टुिहमगीयकहतर
गाम दुबमासमो परिच्छे जो समतो ॥१२॥
मरण) करती हुई स्वयंप्रभाको मनाकर, श्रीविजयको राजपट्ट बांधकर, एक हजार राजाओंके साथ वह वनमें चला गया। रतिका नाश करनेवाले महाऋषि कनककुम्भको अपना गुरु बनाकर बलभद्रने तप ले लिया।
पत्ता-जिनधर्म दृढ़ तेजसे नक्षत्रोंको हकनेवाला, मादरणीय मोहरसका शोषण करनेवाला, भुवनको सीमाओं तक यशवाला, कामदेवके बाणोंका नाश करनेवाला विजय मोक्षके लिए गया ॥२८॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के प्रणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामण्य मरत द्वारा भनुमत इस महाकाम्य में
बावनवा परिच्छेद समाप्त हुआ ॥५in
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८. A सीरें। ९. AP रयाणसुंभु । १०, A जिणधम्मरको ।
सात . सामना