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________________ २४० महापुराण [ ५२. २७. १६घत्ता-थिउ परिहरिवि जणु पेयसेवि वणु णिश्चमेव णिञ्चलमइ ।। अट्ठ वि णि«णिवि' कम्मई जिणिवि गउ सिवपयहु पयावइ ॥२७॥ दुवई-एतहि णिसियषिसमअसिधारातासियणरवरिंदहो । परासीदि लक्ख गय वरिसहं तहि पुरवरि उबिंदहो। दीहासीचावपमाणगत्तु अण्णहिं दिणि भोयसुई अतित्तु । णिद्धम्मचित्तु पिल्लुत्तणाणु वड्दतमहतरउदझाणु। जिह सुत्तउ तेंव जि कण्हलेसु मुल कण्हु ज मह किर को ण वेसु । उप्पणउ तमतमपहि तमोहि पंचविहदीढ्दुसाहदुहोहि । सेत्तीससमुहपमाणु आठ पंचसयसरासणतुंगकाउ। जायउ णारच णारयहं गम्मु भणु कवणु ण मारइ भीमकम् । संई रुयइ सयपह कत कंत अतलबल देव हयगलकयंत । बहुहि णिहालहि सुहिमुहाई दीहइ णिदइ सुत्तो सि काई। बलएवाहु धाधारणरण लोय वि रयति कारुण्णएण । णिसुणेवि सावयणामयाई णिज्झाइवि जिणपयर्पकयाई। पियविरहयवह पइसरति वारवि सयंपह अणुमत । धत्ता-लोगोंका परित्याग कर निश्चल और निश्चित मति वन में प्रवेश कर प्रजापति आठों ही कर्मों को नष्ट कर और जीतकर शिवपदको प्राप्त हुआ ॥२७॥ यहाँपर पैनी और विषम असिंधारासे जिसने नरवर राजाओंको अस्त किया है, ऐसे उस उपेन्द्र त्रिपुष्टके उस नगरमें चौरासी लाख वर्ष बीत गये । उसके शरीरका प्रमाण अस्सी धनुष था। एक दिन वह भोगसुखसे अतृप्त हो उठा, धर्मसे रहित चित्त और ज्ञानसे लुप्त उसका रौद्रध्यान निरन्तर बढ़ रहा था। जैसे ही वह सोया वैसे ही कृष्णलेश्यावाला वह कृष्ण (नारायण त्रिपुष्ठ ) मर गया। यमका द्वेष्य कौन नहीं होता। वह पाँच प्रकारके दोघं दुखोंके समूह अन्धकारसे भरे तमतमप्रभा नगरमें उत्पन्न हुमा ! उसको आयु तैंतोस सागर प्रमाण थी। पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उसका शरीर था। नारकियोंके लिए गम्य वह नारको हुआ। बताओ भीमकर्म किसको नहीं मारता । स्वयंप्रभा स्वयं, 'प्रिय-प्रिय' कहकर रोती है कि हे अतुलबल देव, अश्वनीव ! उठोउठो सुधीजनोंके मुखोंको देखो, तुम लम्बो नीदमें क्यों सोये हुए हो ? बलभद्र के पहाड़ मारकर रोनेसे करुणाके कारण लोग भी रो पड़ते हैं। फिर साघु वचनामतको सुनकर जिनवरके चरणकमलोंका पान कर प्रिय विरहके कारण आगमें प्रवेश करती हुई तथा अनुशरण ( पति के बाद ५. AP पासरिवि वणु। ६. A णि?विचि ।। २८.१. AP परासी वि। २. AP बडतरबद्दमहतमाणि । ३. P को ण दोसु । ४, A विहपंचदोह ५. AP कैम ण मार । ६. A संख्याह । ७. P पियविरहएं।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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