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-१५. ३०.१४ )
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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एहउ भवसंबंधु वियारिउ एत्थु केण किर को उ मारिठ। भ करहि तुहूं जिणधम्मविरुद्ध णियमहि हियवउ रोसाइद्धउं । तं णिसुणिघि पडिजंपइ उरयरु तुह वयणेण ण मारमि खेयर ।। पई जिणमग्गु मझु बजरियर भवकदमि पडंतु उद्धरियज । वह वि साहु उवसर्गणिभणु लइ कीरइ खलदप्पणिसुंभणु । एयड कुलि सिजमंतु म विजउ पुरिसह दुद्धरविदुरसहेजलं। णारिहि सिम्झिहिंति णियमाला संजयंतपतिमापयमल। मागहमंडलकुवलयचंह इंदभूद पुणु कहइ गरिदहु। हिरिबंधणि पयणियस्वयरिंदहु णामु करिधि हिरिमंतु गिरिंदड्ड । मुइवि णित्रद्धवहरबंदिग्गहु लहु णीसल्लु चविवि सपरिगहु । गउ फणि संजयंतु मुणि वंदिवि रविआहट सुरवरु अहिणदिदि । सुरु जाइवि सुहि संठिउ लतवि आउमाणि बोलीणि सउच्छवि । धमा-इइ भरह खेसि उत्तरमहुरि पुरि अर्णतवीरिज णिवइ ।।
लायण्णरूवसोहगणिहि गारि मेरुमालिणिय सइ ॥३०॥
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यह संसार-सम्बन्ध विदारित हो गया । यहाँ किसके द्वारा कौन नहीं मारा गया ! इसलिए तुम जिनधर्मके विरुद्ध आचरण मत करो, रोषसे भरे हुए अपने मनका नियमन करो। यह सुनकर अजगर उत्तर देता है कि तुम्हारे शब्दोंसे में इस विद्याधरको नहीं मारूंगा 1 तुमने मुझे जिनमार्ग बताया है। संसारको कीचड़में डूबते हुए मेरा उद्धार किया है। तो मो उपसर्गका रोकना जरूरी है । लो, इस दुष्टके दर्पका विनाश किया जाता है। इसके कुलमें विद्या सिद्ध नहीं होगी। इसके कुछमें लोगोंको कठोर दुःख सहन करना होगा । परन्तु स्त्रियाँ नियमके घर संजयन्त मुनिकी प्रतिमाके चरणोंमें विद्या सिद्ध करेंगी। मागषरूपी मण्डलके कुलचन्द्र इन्द्रभूति गणधर पुनः राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि विद्याधरोंको लज्जाके बन्धनमें रखनेके कारण, पहाड़का नाम होमन्त रखकर तथा धांधे हुए शत्रुसमूहके बंधनोंको मुक्त कर, तुम निःशल्य रहो-यह कहकर अपने परिग्रहके साथ संजयन्त मुनिको वन्दना कर, दिवाकर देवका अभिनन्दन कर धरणेन्द्र चला गया। सज्जन देव जाकर लान्तथ स्वर्गमें स्थित हो गया। उत्सवोंके साथ आयुका मान समाप्त होनेपर
पत्ता-इस भरतक्षेत्रको उत्तर मथुरा नगरीमें अनन्तवीर्य राजा था, उसकी लावण्यरूप और सौभाग्यकी निधि मेरमालिनी नामकी सती स्त्री थी ।।३०।।
३०. १. AP नवसाग । २. AP°दपर्णागसुंभणि । ३. A सिज्जंतु | A ४. दुबरु विहर ; P दुरि विहरि ।
५, A हरिवणि पलिय'; P हिरिबद्धणि पयलिय ।