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-४१. १७.१४ ]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित वइसाहहु मासहु सियछट्ठिहि सत्तमभवि हियचंदाइट्रिहि । खंतिवयंसियाइ संमाणिउ एक्कल्लउ समाहिघर आणिउ | णाहु चारुचारित्तु विवज्जइ णग्गउ थिउ णिल्लज्ज ण लज्जइ। किरियाभट्ठ उड्दु संचलियउ सिद्धिविलासिणीहि जिणुं मिलियउ । जीवपक्खिबंदिग्गहपंजरु इंदें पुज्जिउ मुक्ककलेवरु । अग्गिकुमारहिं अग्गि विइण्णउ सर्वइ चवइ णहि जंतु सउण्णउ । चउदहभयगामरइ छंडिय
अहिणंदणेण मोक्खपुर मंडिय । गउ गउ गउ जि पडीवउं णायउ मझु वि होजउ तेहिं जि णिकेयउ । पत्ता-जणु आवइ जाइ ण थाइ खणु अथवणुग्गमु दावइ ।
महुं हियवइ भरहाणंदयरंपुप्फयंतसमु भावइ ॥१७॥
इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महामन्चमरहाणुमणिए
महाकम्वे अहिणंदणणिब्वाणगमणं णाम एकचालीसमो परिच्छेउ समत्तो॥४॥
॥' अहिगंदणचरियं समतं ॥
पक्षके योगनिरोधमें स्थित हो गये। वैशाख माहके शुक्लपक्षकी षष्ठीके दिन सातवें नक्षत्रके चन्द्रमासे युक्त होनेपर शान्तिरूपी सखोसे सम्मानित वह अकेले समाधिघरमें स्थित हो गये। सुन्दर चरितवाले स्वामीका विश्लेषण किया जाता है, वह नग्न स्थित थे एकदम लज्जाहीन, उन्हें लज्जा नहीं आती थी। स्पन्दनसे रहित नक्षत्रके समान वह ऊपर चले, और जिन भगवान् सिद्धिरूपी विलासिनीसे जा मिले। इन्द्रने जीवरूपी पक्षीके लिए वन्दीगृहके समान उनके शरीरको पूजा की। अग्निकुमार देवोंने उसे आग दो। आकाशमें जाते हुए पुण्यात्मा इन्द्र कहता है कि चौदह भूतग्रामोंमें रति छोड़कर अभिनन्दनने मोक्षपुरीको अलंकृत किया। वह गये तो गये, फिर वापस नहीं आये । मेरा भी घर वहींपर हो।
घत्ता-जीव आता है और जाता है; एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता, केवल अस्त और उद्गम बताता है। वह मुझे भरतको आनन्द देनेवाले पुष्पदन्तके समान, हृदयमें अच्छे लगते हैं ॥१७॥
इस प्रकार श्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रणीत और महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में अभिनन्दन
जिनवरका निर्वाणगमन नामका इकतालीसवाँ
परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४॥
४. A सत्तमभवियहिं चंदा । ५. A P जिल्लज्जु । ६. A उवसंचलिय । ७. P जणु । ८. A P सक्छु; but T सवह स्वर्गपतिः । ९. A तं जि णिकेवउ; P बहिं जि णिकेयउ । १०. Pणंदयरु । ११. A Pomit the line.