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-५८. ३२.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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हिंडिवि भवसंसारि परत्वसु पच्छइ हरिणसिंगु हुउ तावसु । विजदाद मुणिमारणदुजणु हो डल्झाउ दुकम्मवियंभणु । भदमितु पुणु केसरिससहरु पुणरवि उपरिमगेयजामा बकाबहु सासयगईगामिड देउ समाहि मधु रिसिसौमेिड । णविवि विमलवाणु तिथंकर तेरहमत परमेहि सुईकरु। गणहर गैणु परिपालिविणीरय मोक्खहू बे वि मेक मंदर गय । महु पसियतु वेंतु गुणदित्तई सुद्धइंदसणणाणपरिसई ।। निक्षल होउ फुरियणविमला भति भवंतयारिफमकमला। पत्ता-कह णिसुणिवि मेरुति मंधरह विभिय भरणराहिवइ ।।
थिय मिणवरपयसंणिहियमा पुर्यतकरसरिसरह ॥३२॥
इय महापुराणे तिसहि महापुरिसगुणालंकारे महामन्धमरहाणुमणिए महाकापुरफर्यतविरइए महाकावे संजयंतमेसर्मदरकहवर
णाम सस वेगासमो परिच्छे भी समतो ..
३२ फिर परवश समस्त संसारमें परिभ्रमण कर बावमें मगधंग तापस हमा। फिर मुनियों को मारनेवाला दुर्जन विद्युत्दंष्ट्र हमा। अरे, दुष्कर्मके विस्तारमें भाग लगे। भद्रमित्र (सेठ) सिंहचन्द्र, फिर उपरिमवेयकका देव, फिर शाश्वतगतिगामी चक्रायुष ऋषिस्वामी देव मुझे समाधि प्रदान करें। शुभ करनेवाले परमेष्ठी तेरहवें तीर्थकर विमलनाथको प्रणाम कर, गणघर गुणका परिपालन कर निष्पाप मेरु और मन्दर दोनों मोक्ष चले गये। वे मुझपर प्रसन्न हों, तथा गुणोंसे प्रदीप्त शुद्ध दर्शन, ज्ञान और चारित्र मुझे दें। स्फुरित आकाशके समान निर्मल तथा संसारका अन्त करनेवाले उनके चरणकमलों में मेरी निश्चल भक्ति हो।
पत्ता-मेह और मन्दरकी कहानी सुनकर भरत रामा विस्मित हुए। नक्षत्रोंकी किरणोंके समान कान्तिवाले तथा जिनवरके चरणकमलोंमें अपनी बुद्धि रखनेवाले वह स्थित रह गये ॥३२॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणाकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामण्य भरत द्वारा भमुमत महाकापका संजबन मेक
मन्दर कथान्तर मामका सत्तावनयाँ परिच्छेद समाप्त हुभा ॥५॥
३२. १. A°संसार । २. A°सिंगसुउ। ३. AP विज्जुदा मुणिमारणु। ४. A सासयगय । ५. "
मासिक.। ६. A गुण । ७. A पिभित । ८. AP पुष्पदंत । ९. A कहतरमग्णणं । १. AP सत्तावण्णा ।