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________________ ३३४ महापुराण [ ५८. २१.५णीरेनहसममुहर्पकरण पंकयणा हे दप्पकरण । कयहलणित्तेइयकयखलेण खलु दुच्छिउँ दुहमभुयबलेण । घलएबहु पइसर सरणु अज्जु अज वि णउ प्यासइ मित्तकज्जु । कन्जु बि मई अक्खिउ तुझु सारु सारुह मुइ अवरु वि हथियारु । आरुहसु म जमसासणु अजाण आणेण जाहि मुकाहिमाण | माणहि मा महुं रणि वाणविहि विट्ठि वै भीसण तुह हणइ तुट्ठि । घसा-पडिकण्हें भणि संतण्हें फलव जिउ कि गजहि । धनुदंडे डिभैय कंडे रे कुमार मई तज्जहि ।।२१।। naha AARTA दे देहि कापु किं जंपिएण्ण दुण्णयवंते सुइविप्पिएण । तुहुँ फिकर हडं तुहुं परभणाहु ___ कि बद्धउ विलु पहुत्तगाह । इय भणिवि विसमभडधाक्षणी जुझिाउ विजइ बहुरूपिणी । सीयासुएण भग्गइ अणी बहुरूपिणि जिय पडिरूपिणीह। ता रिउणा घजिउ फुरियधार रहचरणु चवेलु सहसौरफारु । गिरिधरणियलयघालणबलेण तं हरिणा धरियउ करयलेण । सोहर तेगा जिस्मान णवमेह व रविणा णित्तलेणे । णियरूवपरजियणिसणेण अलियंजणसामें पत्तलेण। वीरोंके शरीरोंसे रक्तको जलधारा बह रही है, ऐसे उस युद्ध में कमलके समान मुखवाले, दसे अंकित, जिसने हलसे खलको निस्तेज कर दिया है, ऐसे दुर्दम बाइबलवाले दुष्टको पंकजनाभने खूब भत्र्सना की और कहा-'अरे तुम बलदेवकी शरणमें चले जाओ, मित्रके कामको तुम आज भी नष्ट मत करो। मैंने तुमसे सारको बात कह दी है । तुम उसे करो। दूसरा हथियार छोड़ दो, हे अजान, तू यमके शासनपर अधिरोहण क्यों करते हो अभिमानसे मुक्त होकर तुम यानसे जायो, युद्धमें मेरी बाणवृष्टिको मत मानो, वह वर्षाकी तरह भोषण तुम्हारे आनन्दको नष्ट कर देगी?" पत्ता-सतृष्ण प्रतिकृष्णने कहा, "बिना फलके तुम क्यों गरजते हो, हे बालक कुमार, तुम धनुषदण्ड और बाणसे मुझे धमकाते हो |२१|| २२ तुम कर दो, दुविनीत और कानों के लिए अप्रिय कहने से क्या ? तुम मेरे अनुचर हो, मैं तुम्हारा परम स्वामी हूँ। तुमने विफल प्रभुत्व यश क्यों बाँधा ?" यह कहकर विषम योद्धाओंको मारनेवाली बहरूपिणी विद्यासे यह लड़ा। सीतापुत्र नारायणके द्वारा सैन्यके नष्ट होनेपर प्रति बहुरूपिणी विद्याके द्वारा बहुरूपिणी विधा जीत ली गयी। तब शत्रुने चमकती हुई धारवाला चपल हजारों आराओंबाला चक्र छोड़ा। पहाड़ और पृथ्वीमण्डलको चलानेके बलयाले हरि (सुप्रभ) ने करतलसे उसे धारण कर लिया; उस निर्मल चकसे वह ऐसा शोभित होता है जैसे निर्दोष सूर्यसे नवमेघ शोभित हो । अपने रूपसे मनुष्यत्वको पराजित करनेवाले भ्रमर और २. AP दोन्छिन। ३. A वि। ४. AP सयण्हें । ५. AP डिभियकड़े २२.१. A बहुरूपिणि । २. वरण । ३. AP सहसास फारु । ४. AP णित्तण । ५. A omita Ba |
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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