________________
-५९.८.१]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णवसयई पुरुवपारयरिसिहि संदरिसियमोक्खमग्गदिसिहि । चालीससहास सससयई। सिक्खंयह णमंसियगुरुपयई। निसुलर तिथि सारूई परहं __ अच हिमहं संजममरधरहं। घउसहस पंचसय केवलिहि मणपज्जयाई तई मणबलिहिं। भयसहसई विकिरियाइयह दोसहसई वसुलयवाइयह। सहसाई सहि चउसयजुयई अजियहं मोहवासहु चुयई। दोलक्खई भणियई सावयाई दुगुणाइंसियह पालियबयाई । गिव्याण मिलिय संखारहिय संखेज तिरिक्ख दिक्खसहिय । पणवंति जासु को तेण सई उवमिजइ हूई चित महुँ। गिंभागमि अहणवुत्तरहि
सह जइसरहि कयसंवरहि । चोथिइ पच्छिमपहरइ णिसिहि संमेयसिहरि अरिहहु रिसिहि । संपण्णी धम्महु परमगइ महुं देव भडारण सुद्धमइ। पत्ता-वंदारयवंदहु देहु जिणिदह पुजिषि हयभवपासह ॥
पहजियरविमंडलु गउ आईडलु गय अवर वि णियवासहु ॥७ धम्मवारिविहरणथोहित्थे अस्सि परमधम्मजिणतित्थे ।
पूर्वागोंमें पारंगत और मोक्षमार्गकी दिशा बतानेवाले मुनि नौ सौ थे। जिन्होंने अपने गुरुपदोंको नमस्कार किया है, ऐसे शिक्षक चालीस हजार सात सौ थे। संयमके भारको धारण करनेवाले शेष अवधिज्ञानी तीन हजार छह सौ। केवलज्ञानी चार हजार पाँच सो। मनःपर्यय ज्ञानधारी मुनि भी चार हजार पाँच सौ। विकिया-ऋद्धिधारी सात हजार थे। वादी मुनि दो हजार आठ सौ। मोहवाससे रहित आर्यिकाएं साठ हजार चार सौ। धायक दो लाख और व्रतोंका पालन करनेवाली श्राविकाएं चार लाख। देवता वहाँ संख्यारहित सम्मिलित हुए। दीक्षा सहित संख्यात तिथंच प्रणाम करते हैं। मुझे यह चिन्ता है कि उनकी उपमा किससे दी जाये? प्रोष्मकाल आनेपर संवर धारण करनेवाले आठ सौ नौ मुनियों के साथ (ज्येष्ठ शुक्ला) चतुर्थीके दिन रात्रिके अन्तिम प्रहरमें अरहन्त मुनिको सम्मेद शिखरपर धर्मकी परमगति (मोक्ष) प्राप्त हुई। मादरणीय वह मुझे शुभमति प्रदान करें।
पत्ता-जिन्होंने जन्मपाशको नष्ट कर दिया है ऐसे देवोंके द्वारा बन्दनीय जिनेन्द्रको पूजा कर प्रभासे रविमण्डलको जीतनेवाला इन्द्र तथा दूसरे भी देव अपने-अपने निवासके लिए चले गये ॥७॥
धर्मरूपी जलमें विहार करने के लिए बहाजके समान परम धर्मनाथके इस तीर्थमें हे
७. १. P भिक्षुयह। २. A जिह केवलहिं । ३. AP तियह । ४. AP जासु सो केण सहं। ५. A __बट्टणवघुत्तरहि । ६. A देवजिणिदछ । ८. १. A अस्स ।