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________________ २२४ महापुराण [ ५२. १३.१ दुवई-लुहि लोयणाई मुद्धि मा रोवहि हलि भत्तारवछले ॥ ___ संवि तुइ हयारिफरिमोत्तियकंठिय कंठकंदले ॥ पंडिविविट्टणिव्वाहणाई संणज्यतह बिहिं साहणाई। बहु कास वि देण दहियविलट अहिलसह परिहहिरेण तिलक । बहु कासु वि घिवइ ण अक्खयाउ खलैवइ करिमोत्तिय अक्खया । बहु कासु वि करहण धूषधूमु मग्गइ पदिसुहडमसाणधूमु । बहु कासु वि गप्पा कुसुममाल इकछह ले लति पिसुणतमाल । वहु कासु वि ण थवा हस्थि इत्यु तुह लमाउ गर्ये घडणारिहत्थु । बहु को षि ण मुणइ सुमंगलाई वहु कासु वि णड दावइ पईयु भो कंत तुहं जि कुलहरपईवु । बहु कासु वि पारंभइ ण णट्ट संचितह सत्तुकथंधण? । वाहु का वि ण जोयह कि सिरी पिययमु जोएवड जयसिरीइ । घता-बहु पभणइ भणमि इडं पई गणमि तो तुई महुँ थण पेमहि ।। भगइ णिययबलि जाइ भष्ठतुमुलि खग्गु लेवि रित पेन्झहि ।।१३।। १० दुवईवालालंधि करिवि जुज्मेजस विसरिसवीरगोंदले ॥ अरिकरिबरालि निगुरेजा कुम्मसले । हे मुग्धे, आँखें पोंछ लो, रोओ मत । हे पतिप्रिया सखी, मैं मारे गये शगतके मोतियों की कण्ठमाला तुम्हारे गलेमें बांधूंगा। इस प्रकार वासुदेव और प्रतिवासुदेवका निर्वाह करनेवाली तैयार होती हुई सेनाओंमें से बधू किसीको दहीका तिलक नहीं देती, वह शत्रुके रक्तसे तिलककी इच्छा करती है। वर्ध किसीके ऊपर अक्षत नहीं डालती, वह गजमुक्तारूपी अक्षतोंकी आभेलापा करती है, वधू किसी के लिए धूपका धुओं नहीं करती, वह शत्रु सुभटोंके मरघटका धुआँ माँगती है। वधू किसीके लिए सुमनमाला आत नहीं करती, वह दुष्टोंकी आँतोंकी झूलती हुई माला चाहती है। वधू किसीका भी हाध नहीं पकड़ती है, उस नारी के हाथ तो तुम्हारे लिए घड़े गये हैं। कोई बधु मंगलोंका उच्चारण नहीं करती, वह शत्रुओं के सिररूपी मंगलोंकी अपेक्षा करती है। वधू किसी को दीपक नहीं दिखाती (वह कहती है: हे स्वामी, तुम्हीं कुलघरके प्रदीप हो। किसी की वधू नृत्य प्रारम्भ नहीं करती, यह शत्रुके धड़के नृत्यकी चिन्ता करती है। कोई बधु देखती तक नहीं है कि श्रीसे क्या, प्रियतम विजयलक्ष्मीके द्वारा देखा जायेगा ? पत्ता-बघू कहती है कि अपनी सेना नष्ट होनेपर यदि तुम सैनिकों की भीड़में तलवार लेकर शत्रुको पीड़ित करते हो, तो मैं कहती हूं कि मैं तुम्हें मानती हूँ और तुम मेरे स्तनोंको पोड़ित कर सकते हो ॥१३॥ १४ असामान्य वोरोंके उस युसमें तुम खूब भिड़कर युद्ध करना। शत्रुगजके दौतरूपी मूसलपर १३. १. P पडिविधु । २, AP कलह but K खलपर and gloss अभिलपति । ३. A ललंत । ४. A गयधरि । ५. AP कासु विणकुणह मंगलाई।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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