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-६०.१२.१]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित तहि जि चंद्धकोसिष्ठ दियसार सोमसिरीमणणयणपियारउ । पउरणिबद्धउ णिक दुवारउ अण्णहिं विणि तटु आयहु वारउ । विप्पेण वि अपवरि णिवेसिउ पुत्तु मंडकोसिउ लहु पेसिउ । भूयहि चालित पासि णिसीहहु ललललंतमुइणिग्गयजीहहु । पत्ता-दंडपाणि अवराइउ रक्खसु संमुहुं धाइउ ।।
ढं रेहिं महिरंधर बर्दुवउ वित्तु तमंधइ ॥११॥
तहिं अफिछउ अजयरु तें गिलियउ पुणु सो वलिवि ण जणणिहि मिलियः । तेण देष तुहु विवरिण घिहि एत्थु जि जीवोवाउ वियप्पाहि । पभणइ मइसायर महि दिजइ __ पोयणणाहु अबरु इह किन्न । ता अहिसिंचिवि मेइणिसासणि कंचणजस्खु णिहित सिंहासणि । सो किंकरजगंज पविजः संपन्यारेहिं विजिजइ । जीय देव आएसु भणिज्जा तासु पुरउ णचिन्नइ गिजइ । गयणविलेषमाणधयमाल गरवइ गपि पट्ट जिणालउ । शायइ अधुवु असरणु तिवणु जिणपडिमिंत्रणिहियणिञ्चलमणु । ता सत्तमउ दिया संपत्त
जो जणेण पोयणकइ उत्तः । हुआ। जो कहा गया था, वह प्रतिदिन दिया जाने लगा। वहाँ चण्डकौशिक नामका ब्राह्मण श्रेष्ठ था जो अपनी पत्नी सोमश्रीके मन और नेत्रोंके लिए प्रिय था । एक दिन नगरप्रवरके द्वारा निबद्ध ( निश्चित को गयी ) दुनिवार उसकी बारी आ गयो। ब्राह्मणने गाड़ी के ऊपर अपने पुत्र मण्डकोशिकको बैठाया और शोघ्र उसे भेजा। जिसके मुखसे लपलपातो हुई जीभ निकल रही है ऐसे राजाके पास भूत उसे ले गये।।
पत्ता-तब दण्डपाणि अपराजित नामका राक्षस सामने दौड़ा। दूसरे राक्षसोंने उस बटुकको एक अन्धे महीरन्ध्रमें फेंक दिया ॥११॥
१२ यहाँ एक अजगर था । उसने उसे खा लिया। वह ब्राह्मण दुबारा आकर अपनी मासे नहीं मिला। इसलिए है देव, तुम अपनेको विवरमें मत डालो, यहींपर जीनेके उपायको सोचिए। मतिसागर मन्त्री कहता है-धरती दे दी जाये और पोदनपुरका दूसरा राजा बना दिया जाये। तब स्वर्णयक्षको परतीके शासकके रूपमें अभिषेक कर सिंहासनपर स्थापित कर दिया गया। उसको किंकरजनोंके द्वारा प्रणाम किया जाता है, चंचल चमरोंके द्वारा उसे हवा की जाती है, "हे देव, आदेश दीजिए" यह कहा जाता है। उसके सम्मुख गाया और नाचा जाता है। जिसको ध्वजमाला आकाशसे लगी हुई है ऐसे जिनमन्दिरमें जाकर वह राजा बैठ गया। वह अनित्य और अशरण त्रिभुवनका ध्यान करता है। उसका मन जिनप्रतिमा लीन और निश्चित था। इतने में
६. P चंडकासिच । ७. AT अणु उपरि । ८. P इंदुरेहिं । ९. AP बडुबउ । १२.१. A पहि; P घेपिहि। २. AP अवर वर। ३. AP सीहासणि। ४. P वज्जिजनइ । ५. AP
अधुज।