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महापुराण
[६०. २४.१२घसा-दुश्मपावनयंकर कहइ णरोइ.सुहकरु॥
उग्गयसंसयसंकट विजय अमियतेयंकहु ॥२४॥
जंधूदीवि मरहपरिसंतरि अचलगामि धरणीजडु बंभणु तह इंदग्गिभूइसुय सुहयर कविलु णामु दासेर अलक्खिड कुलविद्धसणु जाणिष्ठ विष्पं गड रयणउरहु भाई भाविडं जंयूपरिणिहि हूई सुंदर कुलणिदिउँ करंतु गुणवंवर घता-वर धणोहे चत्तज
दालिद संतत्तउ
मागहविसइ सुसासणिरंतरि । अग्गिलबंभणितररहर्सभणु । सुयसत्थस्थमहत्थ मणोहर । वेयचउक्त सडंगई सिक्खिः । दुग्जसभीएं धाडि बप्प। सचय दियवरेण परिणादिउ । सञ्चाम णामेण किसोयरि । बरु कुलहीणु वियाणित कंतइ । आयण्णिवि सुयवत्त। तहिं जि ताउ संपत्तउ ॥२५॥ २६ कविलें पुरयणमन्झि पसंसिड | दिपणा कंचणु जेत्तिई मग्गिळं । घणु ढोइवि आमिछउ सुण्डाइ ।
सपरावभीएण मंसिर चाहु पयजुवलु तेण ओलग्गिठ कुलदूसणसणीसासुण्हा
पत्ता-दुर्दम पापोंका नाश करनेवाला मनुष्यों के लिए शुभकर श्रीविजय, जिसके मनमें सन्देहकी कील उत्पन्न है, ऐसे अमिततेजसे कहता है ॥२४॥
२५
जम्बूद्वीपमें भारतवर्षके मगध देशमें, जिसमें निरन्तर सुशासन है ऐसे अचलग्राममें धरणीजट नामका ब्राह्मण था जो अपनी अग्निला ब्राह्मणीके स्तनोंका मर्दन करनेवाला था। उसके शुम करनेवाले इन्द्रभूति और अग्निभूति नामके पुत्र थे, दोनों सुन्दर थे और उन्होंने शास्त्रोंका अर्थ महार्थ सुना था। उसका कपिल नामका अज्ञात वासी पुत्र था। उसने चारों वेदों और छहों अंगोंको सीख लिया। विप्रने उसे कुलका नाश करनेवाला जानकर, अपयशसे धरकर पिताने उसे निकाल दिया। वह रत्नपुर गया। वहाँ सत्यक नामक ब्राह्मणने उसे भला समझा और अपनी अम्बू नामकी स्त्रीसे उत्पन्न हुई कृशोदरी सुन्दर कन्या सत्यभामा ब्याह दी। उस गुणवती कान्ताने कुलनिन्दित कर्म करते हुए उसे जान लिया कि यह कुलहीन पर है।
पत्ता-केवल धनसे रहित होकर पिता धरणीजट अपने पुत्रका समाचार सुनकर दारिद्रयसे पीड़ित होकर वहीं आया ॥२५।।
अपने पराभवसे डरे हुए (पोल खुलनेके भयसे) कपिलने नगरके लोगोंके बीच उनकी प्रशंसा की। उसने उनके चरण छुए और उसने जितना मोगा, उतना सोना दिया। विकट कर्मक
५.A पराह सुहकरु । २५. १. A बप्पे । २. AP सच्चा । ३. P सहसामि | Y. AP आयष्णिय ।