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माताराण
रे पाव
करि सेव।
छलु मुइवि।
पई कालु
दाढालु। सेवंतु
घोरंतु। हर्स विड
अटुषित। कंडुइवि ओसरहि
मा माहि। घणघण
काणणा। पइसरिवि
जिणु सरिवि । वैट धरहि
तब करहि। तापवर
पकवान सुरकर
दालिद । डिंभस्स
छुहियस्स। को कहूँ
आणंदु। मणि जणा
दिहि कुण। सयडंगु
तुहं तुंगु।
मुपर्दछ। सकयस्थ
दिव्यत्य। मरहणमि
सिरु लुणमि। घत्ता-ता चः महुमहमु महुवच्छत्थलु छिण्ण ।।
करतंचे णे रविबिंब काल अन्भु विहिण्णउं ।
मई चंई
दुवई-पत्रउ म मरिवि समरंगणि तमतमोमवसुमई ।।
___ जायउ अवचकि लच्छीहले मुवणि सयंभु महिवई ।। स्वयम्भूने उच्चे तिनका समझा, और दुश्मनसे कहा-रे पापो, दुःखका हरण करनेवाले बलभद्रकी सेवा कर। दाहोंवाले घोर फालकी सेवा करते हुए तुमपर वह कुल हो उठे हैं, अतः छल छोड़. कर और सन्तुष्ट होकर हट जाओ-मरो मत । सघन वनमें प्रवेश कर जिनकी शरणमें व्रत धारण करो और तप करो। तर चक्रवर्ती कहता है-हे भयंकर कंगाल ! क्या चन्द्रमा भूखे बालकको • मनमें मानन्द देता है ? धीरज उत्पन्न करता है? तुम्हारा ऊंचा चक्र है, मेरा प्रचण्ड भुजदण्ड है, कृतार्थ और दिव्यार्थवाला । मगर, मैं मारता हूँ, सिर काटता हूँ।
__ पत्ता-नारायणके द्वारा मुक्त चक्रने मधुका वक्षःस्थल इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया मानो बारक्त किरणोंवाले सूर्यबिम्बने काले बादलको छिन्न-भिन्न कर दिया हो ॥९॥
समरांगणमें मृत्युको प्राप्त कर तमतमप्रभा नामको नरकभूमिमें पहुँचा। तथा राजा स्वयम्भू ४. AP पिठ । ५. A कंडएवि । १. APTE | ७, कुंदु । ८, A मंड। ९. A दं। १०.१. Pणाभि । २. P लच्छीहल ।