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________________ ११० महापुराण [४४.९.६देव तुहारी हयदुहवेल्लिहि भत्ति मूलु आसिद्धि सुहेलिहि । अट्ट वि पाडिहेर थिय जांवहि समवसरणि आसीणउ तांबहि । भास धम्म भडारउ जेहन भासहुं सक्कइ को वि ण तेहरु। पालइ को वि कहिं मि जइ सूरउ णासइ णिहि जणु विवरेरउ । घत्ता-पाणिवह पमेलह अलि म बोल्लह दवु परायउ मा हरह ।। परदार म माणइ घणु परिमाणहै रयणिहि भोयणु परिहरइ ॥९॥ एंव भणिवि संबोझिय मणहर पंचणवइ संजाया गणहर । 'षिणि सहस भासिय तीसुत्तर अंगसपुर्वधारि सहु मुणिवर । 'बिणि लक्ख चालीससहासई धउसाहस ई णत्रसयई विमीसई। अवर वि वीस जि सिक्खुय साहिय जे णोरंजणेण णिवाहिय । णव जि सहासई ओहिरियो हेहं सहसेयारह पंचमबोहह । संयई तिणि सहसई पपणारह विक्किरियालई रिसिहि सुहीरह। सोत्तसंमाणसहासपमाण पण्णासुत्तरु सर मणजाणई । घसुसहसई रिदुसयई विवाहि सुद्धसुरूवदेसकुलजाइहिं । लक्खई तिपिण तीससहसाल विरयह णारिहिं लुधियालाई । १. सागारह वि लक्खु गुणगुत्तिहिं वयगुणियाई दाई तप्पत्तिहिं । वर्णन करता है ? समुद्र मापनेके लिए क्या घड़ा लाया जाता है ? हे देव, दुःखरूपी लताका हमन करनेवाली सुखरूपी लताका, सिद्धिपर्यन्त मूल तुम्हारी भक्ति ही है । जैसे ही आठ प्रातिहायोकी स्थापना हई वेसे हो, वह समवसरणमें विराजमान हो गये। आदरणीय व जिस प्रकार धर्मका कथन करते हैं, उस प्रकारका कथन दूसरा कोई नहीं कर सकता। कहीं यदि कोई सूर हो तो वह पालन कर सकता है ? निष्ठासे विपरीत मनुष्य नाशको प्राप्त होता है। पत्ता-प्राणियों का वध छोड़ो, झूठ मत बोलो, दूसरेके धन का अपहरण मत करो, परस्त्रीको मत मानो, धतका परिसीमन करो, रात्रिमें भोजनका परिहार करो ॥९॥ इस प्रकार कहकर उन्होंने सम्बोधित किया। उनके पंचानबें सुन्दर गणधर हुए। अंगधारी मुनिवर दो हजार तीस थे । शिक्षक दो लाख चौवालोस हजार नौ सौ बोस कि जिनका निरंजन ( तीर्थकर ) ने संसारसे उद्धार किया। अवधिज्ञानी नौ हजार; केवलज्ञानी; पन्द्रह हजार तीन सौ सुधीर, विक्रिया-ऋद्धिके धारक थे। मनःपर्ययज्ञानी नो हजार एक सौ पचास । शुद्ध स्वरूप, देशकालमें उत्पन्न हुए वादी मुनि आठ हजार छह सौ। तीन लाख तीस हजार केश लोंच करनेवाली आयिकाएं थों। तीन लाख श्रावक और पांच लाख प्राविकाएं। ६. A बासुति । ७. A कहि मि को वि । ८. AP पाणिवतु । ९. " परदारू । १०. P परियाणह। १०.१. A दोषिणः । २. A अंगसुपुब्वधारि; P अंगपुत्रधारिय । ३. A ओहिविमोहह । ४. P सयाई। ५. P सुधीरहे । ६. P°समारण । ७. A विरक्ष्यणारिहि । ८. P लुचियकुसलहि । ९. A याषिणयाई।
SR No.090275
Book TitleMahapurana Part 3
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages522
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size15 MB
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